________________ 424 जीतकल्प सभाष्य 1483. शंकित की चतुर्भंगी में प्रथम दोनों-ग्रहण और भोजन में शंकित होता है, दूसरा ग्रहण में शंकित भोजन में नहीं, तृतीय भोजन में शंकित होता है, ग्रहण में नहीं, चरम भंग ग्रहण और भोजन में निःशंकित होने के कारण शुद्ध है। (सोलह उद्गम तथा नौ एषणा) इन पच्चीस दोषों में जिस दोष से शंकित होता है, वह उसी दोष से सम्बद्ध होता है। 1484. छद्मस्थ श्रुतज्ञानी उपयुक्त होकर ऋजुता से प्रयत्नपूर्वक गवेषणा करता है। वह पच्चीस दोषों में से किसी एक दोष से अशुद्ध आहार ग्रहण करने पर भी शुद्ध है क्योंकि श्रुतज्ञान प्रमाण से वह शुद्ध है। 1485. सामान्यतः श्रुतोपयुक्त श्रुतज्ञानी मुनि यदि अशुद्ध आहार ग्रहण करता है, फिर भी उसको केवलज्ञानी खाता है, अन्यथा श्रुतज्ञान अप्रमाण हो जाता है। 1486. सूत्र का अप्रामाण्य होने पर चारित्र का अभाव हो जाएगा, चारित्र का अभाव होने पर मोक्ष का अभाव हो जाएगा और मोक्ष के अभाव में दीक्षा की प्रवृत्ति निरर्थक हो जाएगी। 1487. उद्गम के सोलह दोष तथा शंका को छोड़कर एषणा के नौ दोष-ये पच्चीस दोष शंकित हो सकते हैं। 1488. (शिष्य प्रश्न पूछता है-) यदि शंका दोषकरी है तो शुद्ध भिक्षा के प्रति भी शंका होने पर वह अशुद्ध हो जाएगी तथा नि:शंकित रूप में एषणा करने पर अनेषणीय भी निर्दोष हो जाएगी। 1489. वह शंकाग्रस्त होकर कहता है कि एक पक्षीय अध्यवसाय अशुद्ध होता है। वह एषणीय को अनेषणीय बना देता है तथा विशुद्ध अध्यवसाय अनेषणीय को भी एषणीय बना देता है। 1490. इसलिए मुनि को नि:शंक होकर भोजन करना चाहिए। शंकित द्वार का वर्णन कर दिया, अब मैं मेक्षित दोष के बारे में कहूंगा। मेक्षित का अर्थ है -किसी सचित्त या अचित्त द्रव्य से संसक्त। 1491. म्रक्षित दोष के दो भेद हैं –सचित्त और अचित्त। सचित्त म्रक्षित तीन प्रकार का है-पृथ्वीकाय मेक्षित, अप्काय म्रक्षित तथा वनस्पतिकाय म्रक्षित।। 1492. शुष्क सरजस्क पृथ्वी से लिप्त हाथ और पात्र से भिक्षा ग्रहण करने पर पणग (पांच दिन-रात), जिसका तप रूप प्रायश्चित्त निर्विगय प्राप्त होता है। 1. उदाहरण स्वरूप यदि आधाकर्म दोष में शंका उत्पन्न हुई है तो उस आहार को ग्रहण करता हुआ या भोगता हुआ मुनि आधाकर्म दोष से सम्बद्ध होता है। १.पिनिमटीप.१४७;षोडशोद्मदोषनवैषणादोषरूपाणां पंचविंशतिदोषाणांमध्ये येन दोषेणशतिं-सम्भावितमापन: वर्तते तेन दोषेण सम्बद्धः। 2. टीकाकार इस गाथा को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि आगमोक्त विधि से शुद्ध गवेषणा से प्राप्त अशुद्ध आहार भी शुद्ध होता है क्योंकि व्यवहार में श्रुतज्ञान ही प्रमाण होता है।' १.पिनिमटी प.१४८। ३.दिन में एक बार खाना, जिसमें दूध, दही आदि विकृति न खाकर छाछ, रोटी, चना आदि का भोग करना निर्विगय है।