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________________ कथाएं : परि-२ 581 प्रथम प्रहर में उसने जानु को खाया, दूसरे प्रहर में ऊरु तथा तीसरे प्रहर में पेट का मांस खाने लगी। वेदना को समभाव से सहते हुए अवन्ति-सुकुमाल कालधर्म को प्राप्त हो गया। आकाश से गंधोदक एवं पुष्पों की वर्षा होने लगी। भार्याओं ने आपस में अवन्ति-सुकुमाल के बारे में पूछा / आचार्य ने उन्हें सारी बात बताई। आचार्य पूरी ऋद्धि के साथ उन पलियों के साथ श्मशान में गए। सभी पलियां विरक्त होकर प्रव्रजित हो गयीं। उनमें एक गर्भवती थी, उसको दीक्षा नहीं दी गयी। उसके पुत्र ने देवकुल का निर्माण करवाया। वह आज महाकाल के नाम से प्रसिद्ध है। लोगों ने इसे स्वीकार कर लिया। उत्तरचूलिका में कहा गया है कि वही पाटलिपुत्र है। 13. युवक-समूह का अनशन कुछ मुनि सामूहिक रूप से नदी के किनारे प्रायोपगमन अनशन में स्थित थे। वर्षा होने से नदी के प्रवाह में वे एक संकरे स्रोत में फंस गए। वेदना को समभाव से सहन करते हुए वे वहीं दिवंगत हो गए। 14. अनशन में म्लेच्छ का उपद्रव बत्तीस मित्रों ने एक साथ प्रायोपगमन अनशन को स्वीकार किया। उस द्वीप में अनेक म्लेच्छ रहते थे। एक म्लेच्छ ने सोचा कि ये सभी कल मेरे भोजन में काम आएंगे अतः उसने उनको एक वृक्ष पर लटका दिया। वे उस वेदना को समभाव से सहन करके दिवंगत हो गए। १५.शिष्यों की परीक्षा एक आचार्य ने शिष्यों की परीक्षा लेने का चिन्तन किया। एक बड़ा सा वृक्ष देखकर उन्होंने शिष्यों से कहा कि इस वृक्ष पर चढ़कर कूद जाओ। इस आदेश को सुनकर अपरिणामक शिष्य बोला-"साधु को वृक्ष पर चढ़ना अकल्पनीय है। इस वृक्ष पर चढ़ाकर क्या आप मुझे मारना चाहते हैं?" अतिपरिणामक शिष्य ने कहा-"ऐसा ही होगा मेरी भी यही इच्छा है।" परिणामक शिष्य ने इस आदेश को सुनकर सोचा कि आचार्य स्थावर जीवों की हिंसा की अनुमोदना भी नहीं करते फिर पंचेन्द्रिय प्राणी की हिंसा की बात कैसे संभव है? गुरु के इस कथन के पीछे कोई रहस्य होना चाहिए। यह सोचकर शिष्य वृक्ष पर चढ़ने के लिए तत्पर हो गया लेकिन गुरु ने उसे चढ़ने से रोक दिया। गुरु ने उन दोनों शिष्यों को प्रेरणा देते हुए कहा-"तुम लोग मेरे कथन का तात्पर्य नहीं समझे इसीलिए तुम ऐसा कह रहे हो।" मैंने तुम्हें सचित्त वृक्ष पर चढ़ने के लिए नहीं कहा था। मेरे कथन का तात्पर्य था कि भवार्णव में प्राप्त तप, नियम और ज्ञान रूपी वृक्ष पर चढ़कर संसार रूपी कूप का उल्लंघन करो। इसी प्रकार गुरु के द्वारा ईमली के बीज लाने का आदेश देने पर अपरिणामक शिष्य ने 'ये 1. जीभा 536, आवचू 2 पृ. 157, हाटी 2 पृ. 120 / २.जीभा 537, व्यभा 4426 / 3. जीभा 538, व्यभा 4428 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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