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________________ अनुवाद-जी-३५ 385 1101. औदारिक शब्द ग्रहण से तिर्यञ्च, मनुष्य और सूक्ष्म वर्जित एकेन्द्रिय का ग्रहण होता है। अपद्रावण अर्थात त्रास देना जिसका वास्तविक अर्थ है-प्राणातिपात रहित पीडा।। 1102. काय, मन और वचन अथवा देह (कायबलप्राण), आयु (आयुष्यप्राण) और इंद्रियप्राण –इन तीनों का स्वामित्व' अर्थात् षष्ठी तत्पुरुष, अपादान' अर्थात् पञ्चमी तत्पुरुष तथा करण-तृतीया तत्पुरुष से तिपात-अतिपात करना त्रिपातन है। 1103. एक या अनेक साधुओं का मन में संकल्प कर दाता जो षट्काय का वध करता है, वह आधाकर्म कहलाता है। 1104. जिसके लिए आधाकर्म निष्पन्न हुआ, जो उसको भोगता है अथवा स्वयं कायवध करता है या उसका अनुमोदन करता है, वह आत्मा से कर्मबंध करता है। 1105. भगवती सूत्र में कहा गया है कि आधाकर्म आहार का भोग करता हुआ मुनि शिथिलबंधन वाली कर्म प्रकृतियों को गाढ़ बंधन वाली करता है। 1106. संयमस्थान, कंडक'-संयमश्रेणी, लेश्या तथा शुभ कर्मों की स्थिति विशेष में वर्तमान शुभ अध्यवसाय और शभलेश्या को जो हीन-नीचे से नीचे करता है. वह भाव अध:कर्म है। 1. तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के प्राणी समाविष्ट होते हैं / एकेन्द्रिय के दो भेद होते हैं -सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म एकेन्द्रिय का अपद्रावण मनुष्य के द्वारा संभव नहीं है, इसलिए उसका यहां वर्जन किया गया है। 2. षष्ठी तत्पुरुष समास में काय, वचन और मन का पातन अर्थात् विनाश। यह परिपूर्ण गर्भज पंचेन्द्रिय मनुष्य और तिर्यञ्चों की दृष्टि से जानना चाहिए। एकेन्द्रियों के केवल काय का, विकलेन्द्रिय एवं सम्मूर्छिम तिर्यञ्च और मनुष्यों के काय और वचन का अतिपात जानना चाहिए। देह, आयु और इंद्रिय का अतिपात सभी तिर्यञ्च और मनुष्यों पर घटित होता है। इनमें भी एकेन्द्रिय की दृष्टि से औदारिक देह, आयु की अपेक्षा से तिर्यग् आयु . . तथा इंद्रिय की अपेक्षा से स्पर्श इंद्रिय जानना चाहिए। द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन-इन दो इंद्रियों का समावेश होता है। १.पिनिमटी प. 37 / 3. अपादान-पंचमी तत्पुरुष की अपेक्षा से त्रिपात का निरुक्त होगा-काय, वचन और मन से तथा देह, आयु .' और इंद्रिय से पातन-च्या वन करना त्रिपातन है। १.पिनिमटी प. 37 / 4. करण अर्थात् साधन की दृष्टि से काय, वचन और मन-इन तीन करणों से अतिपात करना त्रिपातन है। ५.भ. 1/436 / 6. कंडक का अर्थ है-अंगुल मात्र क्षेत्र का असंख्येयभाग गत प्रदेश राशि प्रमाण संख्या। कंडक एवं संयमस्थानक की व्याख्या हेतु देखें श्री भिक्षुआगम विषयकोश भाग-२ पृ. 341, 342 / अंगुल मात्र क्षेत्र के असंख्येय भागगत प्रदेश राशि प्रमाण कंडक होते हैं / मलयगिरि ने यहां कंडक को स्पष्ट करने हेतु एक पद उद्धृत किया है-'कण्डं ति इत्थ भण्णइ, अंगुलभागो असंखेज्जो।' ___ १.पिनिमटी प.३९।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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