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________________ 386 जीतकल्प सभाष्य 1107. सं उपसर्ग एकीभाव अर्थ में तथा यमु धातु उपरमण-विरति के अर्थ में प्रयुक्त होती है। अथवा सम्यक् रूप से यम-संयम अथवा मन, वचन और काया का निग्रह करना संयम है। 1108. जहां संयम है, वह संयम का स्थान कहलाता है। उसके एक स्थान में चारित्र के अनंत पर्यव होते 1109. संयमस्थान असंख्य होते हैं इसलिए कंडक भी असंख्य हैं। लेश्यास्थान भी यवमध्य की भांति. असंख्य हैं। 1110-12. लेश्या, कंडक और संयमस्थान कम होते हुए असंख्य लोक जितने स्थान वाले हो जाते हैं, वह संयमश्रेणी' कहलाती है। स्थान, कंडक और लेश्या आदि के विशुद्ध होने से उत्कृष्ट देव आयु स्थिति बंध के योग्य होकर भी आधाकर्म भोजी साधु अपने आपको नीचे से नीचे गिरा देता है। सूत्र (भगवती. सूत्र) में कहा गया है कि वह कर्मों का बंधन, चय और उपचय करता है। 1113. आधाकर्मग्राही मुनि अधोगति का आयुष्य बांधता है तथा अन्यान्य कर्मों को भी अधोगति के अभिमुख करता है। वह तीव्र-तीव्रतर भावों से बंधे हुए कर्मों का निधत्ति, निकाचना रूप में घनकरण करता हुआ प्रतिपल कर्मों का चय-उपचय करता है।' 1114. उन भारी कर्मों के उदय से वह आधाकर्मग्राही मुनि दुर्गति में गिरती हुई अपनी आत्मा को नहीं . बचा सकता इसलिए इसे अध:कर्म कहा गया है। 1115. जो प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन जानते हुए अथवा अनजान में षड्जीवनिकाय का प्राणव्यपरोपण करता है, उसे द्रव्य आत्मघ्न कहते हैं। जो जानते हुए वध करता है, वह निदा तथा नहीं जानते हुए अज्ञान अवस्था में वध करता है, वह अनिदा कहलाती है। 1116,1117. जो जानते या नहीं जानते हुए सामान्यतः निर्देश करके वध करता है, वह द्रव्य आत्मघ्न है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-ये तीन भाव आत्मा हैं, जो प्राणियों के प्राणों का विनाश करने में रत है, वह अपनी भाव आत्मा का हनन करता है। 1118, 1119. निश्चयनय के अनुसार चारित्र आत्मा का विनाश होने पर ज्ञान और दर्शन का घात होता है। व्यवहारनय के अनुसार चरण-चारित्र का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन के विघात की भजना है, यह 1. असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण षट्स्थानक संयमश्रेणी कहलाती है। १.पिनिमटी प.४१; चासंखेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि षट्स्थानकानि संयमश्रेणिरुच्यते। 2. भगवती सूत्र में उल्लेख मिलता है कि आधाकर्म का भोग करने वाला साधु आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म प्रकृतियों के शिथिल बंधन को गाढ़ बंधन वाली, अल्पस्थिति वाली कर्म-प्रकृतियों को दीर्घकालिक स्थिति वाली, मंद विपाक वाली प्रकृतियों को तीव्र विपाक वाली तथा अल्प प्रदेश-परिमाण वाली प्रकृतियों को बहुप्रदेश परिमाण वाली करता है। आयुष्य का बंधन कभी करता है, कभी नहीं करता। 1. भ१/४३६।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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