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________________ अनुवाद-जी-३५ 387 भाव आत्मघ्न है। अब मैं आत्मकर्म को कहूंगा। जो परकर्म-पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मीकृत करता है, वह आत्मकर्म है। 1120. आधाकर्म द्रव्य ग्रहण में परिणत मुनि संक्लिष्ट परिणाम वाला होता है। वह प्रासुक द्रव्य ग्रहण करता हुआ भी कर्मों से बंधता है, इसे आत्मकर्म जानना चाहिए। 1121. जो आधाकर्म को ग्रहण कर उसका उपभोग करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म कर लेता है। शिष्य जिज्ञासा करता है कि परक्रिया अन्यत्र कैसे संक्रान्त होती है? 1122. इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे दूसरे के द्वारा प्रयुक्त विष मारक होता है, वैसे ही परकृत कर्म भी जीव के परिणाम विशेष से बंध का कारण हो सकता है। 1123. शिष्य पुनः जिज्ञासा करता है कि यदि परप्रयुक्ति बंध का कारण है तो फिर परकृत भोजन करने वाले के भी कर्मबंध होगा। (इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं) दूसरे के द्वारा प्रयुक्त जाल में जो गिरता है, वही उसमें बंधता है। 1124, 1125. गुरु कहते हैं कि जो मृग प्रमत्त और अदक्ष है, वही उस जाल में बंधता है। जो अप्रमत्त और दक्ष होता है, वह बंधन को प्राप्त नहीं होता। इसी प्रकार जो मन, वचन और काया के योगों से अप्रमत्त होता है, वह नियमतः बंधन को प्राप्त नहीं होता लेकिन दूसरा परकृत में भी बंधन को प्राप्त हो जाता है। 1126. यह सम्मत बात है कि मुनि स्वयं आधाकर्म भोजन निष्पन्न नहीं करता (और न ही दूसरों से करवाता है). किन्तु आधाकर्म को जानता हुआ भी जो उसे ग्रहण करता है, वह आधाकर्म भोजन ग्रहण करने के प्रसंग को बढ़ावा देता है। जो उसको ग्रहण नहीं करता, वह उसका निवारण करता है। 1127. इसलिए अशुद्ध मन आदि से परकृत को भी आत्मीकृत किया जाता है, आत्मीकृत कैसे किया जाता है, उसके ये कारण हैं - * 1128. प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण, संवास और अनुमोदना'-इन चारों प्रकारों से व्यक्ति परकृत पचन-पाचन आदि क्रिया को आत्मीकृत करता है। उनके उदाहरण ये हैं - ". 1. टीकाकार मलयगिरि और अवचूरिकार के अनुसार मृग और कूट का दृष्टान्त यशोभद्रसूरि का है। उनके अनुसार दक्ष और अप्रमत्त मृग जाल से बचकर चलता है और यदि किसी कारणवश वह जाल में फस भी जाता है तो जाल बंद होने से पहले तत्काल वहां से निकल जाता है लेकिन प्रमत्त और अकुशल मृग बंध ही जाता है अतः केवल परप्रयुक्ति मात्र से कोई बंधनग्रस्त नहीं होता। इसी प्रकार आधाकर्म आहार बनाने मात्र से साधु के पाप कर्म का बंधन नहीं होता। जो अशुभ अध्यवसाय से उसको ग्रहण करता है, वह परकर्म-गृहस्थ के पचन-पाचन आदि कर्म को आत्मकर्म बनाता है। यहां उपचार से आधाकर्म को आत्मकर्म कहा गया है। १.पिनिमटी प.४४, 45 / 2. प्रतिसेवना, प्रतिश्रवण आदि के विस्तार हेतु देखें पिनि 68/2-69/4, यह जैन विश्व भारती से प्रकाशित / पिण्डनियुक्ति की संख्या है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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