________________ 388 जीतकल्प सभाष्य 1129. प्रतिसेवना में चोर, प्रतिश्रवण में राजपुत्र, संवास के अन्तर्गत पल्ली में रहने वाले वणिक् तथा अनुमोदना में राजदुष्ट का उदाहरण ज्ञातव्य है। 1130. आधाकर्म के अध:कर्म आदि नाम संक्षिप्त में कहे गए हैं। अब मैं संक्षेप में इसके एकार्थकों को कहूंगा। 1131. व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी होती है 1. एक अर्थ, एक व्यञ्जन। 3. नाना अर्थ, एक व्यञ्जन। 2. एक अर्थ, नाना व्यञ्जन। 4. नाना अर्थ, नाना व्यञ्जन। 1132. एक अर्थ और एक व्यञ्जन वाले शब्द, जैसे-क्षीर क्षीर / एक अर्थ और नाना व्यञ्जन वाले शब्द, जैसे-दूध, पयस्, पालु और क्षीर।। 1133. एक व्यञ्जन और नाना अर्थ वाला शब्द, जैसे-गाय, भैंस और बकरी आदि के दूध के लिए क्षीर शब्द का प्रयोग। नाना अर्थ और नाना व्यञ्जन, जैसे-घट, पट, कट, शकट, रथ आदि शब्द। 1134, प्रथम भंग - एक अर्थ एक व्यंजन-आधाकर्म, आधाकर्म। 1135. द्वितीय भंग - नाना व्यञ्जन एक अर्थ-आधाकर्म, अधःकर्म, आत्मघ्न अथवा इन्द्र, शक्र आदि। तृतीय भंग - नाना व्यञ्जन एक अर्थ-आधाकर्म, अध:कर्म, आत्मघ्न और आत्मकर्म। चतुर्थ भंग - नाना व्यञ्जन नाना अर्थ-शून्य। 1136. जैसे पुरन्दर आदि शब्द इन्द्र के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते, वैसे ही अध:कर्म, आत्मघ्न तथा आत्मकर्म आदि शब्द भी आधाकर्म के अर्थ का अतिक्रमण नहीं करते। 1137. आधाकर्म का उपभोग करने वाला अपनी आत्मा का अध:पतन करता है (अतः इसका एक नाम 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 29-32 / २.व्यवहारभाष्य में व्यञ्जन और अर्थ की चतुर्भंगी एवं उसके उदाहरण में निम्न दो गाथाओं का उल्लेख मिलता है। इन गाथाओं में शब्दभेद तथा उदाहरण में भिन्नता है लेकिन वाच्यार्थ एक ही हैनाणत्तं दिस्सए अत्थे, अभिन्ने वंजणम्मि वि। वंजणस्स य भेदम्मि, कोइ अत्थो न भिज्जति॥ पढमो त्ति इंद-इंदो, बितीयओ होइ इंद सक्को त्ति / ततिओ गो-भूप-पसू, रस्सी चरमो घड-पडो त्ति // व्यभा 155, 156 3. यद्यपि आधाकर्म के प्रसंग में चौथा भंग शून्य है लेकिन पिण्डनियुक्ति की टीका में मलयगिरि ने स्पष्ट किया है कि यदि कोई व्यक्ति अशन के लिए आधाकर्म, पानक के लिए अध:कर्म,खादिम के लिए आत्मघ्न तथा स्वादिम के लिए आत्मकर्म का प्रयोग करे तो ये नाम नाना अर्थ और नाना व्यञ्जन वाले हो जाते हैं। इस दृष्टि से चरम भंग भी प्राप्त हो सकता है। १.पिनिमटी प.५१; यदा तु कोऽप्यशनविषये आधाकर्मेति नाम प्रयुङ्क्ते पानविषये त्वधःकर्मेति खादिमविषये त्वात्मनमिति खादिमविषये त्वात्मकर्मेति तदाऽमूनि नामानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि चेति चरमोऽपि भङ्गः प्राप्यते।