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________________ 384 जीतकल्प सभाष्य चारित्र से कर्मशुद्धि होती है तथा उद्गम की शुद्धि होने से चारित्र की शुद्धि होती है। 1093. पिण्ड, उपधि और शय्या में अशुद्धि होने पर चारित्र की शुद्धि नहीं रहती। पिण्ड, उपधि और शय्या की शुद्धि होने पर चारित्र की शुद्धि होती है। 1094. इसलिए चारित्र की शुद्धि के लिए पिण्ड के उद्गम का अधिकार है। उद्गम के सोलह द्वार ये.' होते हैं१०९५, 1096. 1. आधाकर्म 2. औद्देशिक 3. पूतिकर्म 4. मिश्रजात 5. स्थापना 6. प्राभृतिका 7. प्रादुष्करण 8. क्रीत 9. प्रामित्य 10. परिवर्तित 11. अभिहत 12. उद्भिन्न 13. मालापहत 14. आच्छेद्य 15. अनिसृष्ट 16. अध्यवपूरक। 1097, 1098. उद्गम के ये सोलह द्वार निर्दिष्ट हैं। अब मैं इनका विवरण कहूंगा। इनमें प्रथम आधाकर्म है, उसके ये नौ द्वार हैं-१. आधाकर्म के नाम 2. उसके एकार्थक 3. किसके लिए निर्मित 4. क्या? 5. परपक्ष-गृहस्थ वर्ग 6. स्वपक्ष–साधु वर्ग 7. चार (अतिक्रम आदि चार दोष) 8. ग्रहण 9. आज्ञा-भंग दोष आदि। 1099. आधाकर्म के ये चार नाम हैं-१. आधाकर्म 2. अध:कर्म 3. आत्मघ्न तथा 4. आत्मकर्म। 1100. जिसके लिए मन में सोचकर औदारिक' शरीर वाले प्राणियों का अपद्रावण' तथा विनाश करके द्रव्य निष्पादित किया जाता है, उसे आधाकर्म कहते हैं। 1. टीकाकार मलयगिरि ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि औदारिक शरीर तिर्यञ्च और मनुष्यों के होता है। तिर्यञ्च में एकेन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक के जीवों का ग्रहण होता है। एकेन्द्रिय में सूक्ष्म जीव भी होते हैं। सूक्ष्म होने के कारण उनका अपद्रावण मनुष्यों के द्वारा संभव नहीं है अत: उनका यहां ग्रहण क्यों किया गया है? इसका उत्तर देते हुए टीकाकार कहते हैं कि जो जिस वस्तु से अविरत है, वह उस कार्य को नहीं करता हुआ भी परमार्थतः उसे करता हुआ जानना चाहिए, जैसे रात्रिभोजन से अविरत गृहस्थ रात्रिभोजन नहीं करता हुआ भी रात्रिभोजन के पाप से लिप्त होता है, वैसे ही गृहस्थ सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण से अविरत है अत: यहां साधु के लिए समारम्भ करते हुए वे सूक्ष्म एकेन्द्रिय के अपद्रावण को करते हैं। भाष्यकार ने अपनी व्याख्या में सूक्ष्म एकेन्द्रिय का वर्जन किया है। १.पिनिमटी प. 37 / 2. भाष्यकार ने उद्दवण-अपद्रावण का अर्थ अतिपात रहित पीड़ा किया है। साधुओं के लिए शाल्योदन आदि पकाने में वनस्पतिकाय का जब तक प्राणातिपात नहीं होता, उससे पूर्व की सारी पीड़ा अपद्रावण कहलाती है। जैसे साधु के लिए शाल्योदन पकाने में शालि का दो बार कण्डन किया जाता है, कण्डन कृत पीड़ा अपद्रावण कहलाती है। तीसरी बार कण्डन करने में शालि जीवों का अवश्य ही अतिपात हो जाता है। १.पिभा 16 ; उद्दवणं पुण जाणसु, अतिवातविवज्जितं पीलं। २.पिनिमटी प.३७; यथा साध्वर्थ शाल्योदनकृते शालिकरटेर्यावद्वारद्वयं कण्डनं, तृतीयं तु कण्डनमतिपातः।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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