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________________ 170 जीतकल्प सभाष्य तो यह परधार्मिक आहार स्तैन्य है। उस समय यदि कोई उसे पहचान ले तो चतुर्लघु, यदि संघ की अवहेलना हो तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। लोग प्रवचन की अवहेलना करते हुए यह कहें कि ये जैन साधु भोजन के लिए ही प्रव्रजित होते हैं। इन्होंने कभी दान दिया ही नहीं। गृहवास में भी ये गरीब थे। इनके.शास्ता ने इनका गला नहीं दबाया और सब कुछ कर दिया। लिंग प्रविष्ट उपधि स्तैन्य कोई बौद्ध भिक्षु अपनी उपधि छोड़कर भिक्षार्थ गया, उस समय यदि साधु उसकी उपधि चुरा ले तो उसे चतुर्लघु, यदि बौद्ध भिक्षु मुनि को पकड़ ले तो चतुर्गुरु, राजकुल के सम्मुख उसे घसीटे तो षड्गुरु, यदि राजा न्याय करे तो छेद, यदि उसे पुनः गृहस्थ बना दे तो मूल तथा देश से निष्काशित करे अथवा अपद्रावण करे तो अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार उसे अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यहां बृहत्कल्पभाष्य का अभिमत सम्यक् प्रतीत होता है क्योंकि यहां अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का प्रसंग है। यह भी संभावना की जा सकती है कि चरिम शब्द से जिनभद्रगणि का अभिप्राय अनवस्थाप्य से ही हो। लिंग प्रविष्ट सचित्त स्तन्य ___ कोई साधु अव्यक्त क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका को उसके सम्बन्धी से पूछे बिना चुराकर ले जाए तो उसे चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। साधु को खींचने पर षड्गुरु, न्यायालय में ले जाने पर छेद, पश्चात्कृत (गृहस्थ वेश पहनाना) करने पर मूल, लोगों में उड्डाह–अपमान होने पर तथा हाथ-पैर काटे जाने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। व्यक्त क्षुल्लक अथवा क्षुल्लिका के लिए पृच्छा की अपेक्षा नहीं है। क्षेत्र और उसकी शक्ति को जानकर प्रव्रजित किया जा सकता है। यदि वह क्षेत्र शाक्य आदि से प्रभावित है अथवा राजभवन में उसका प्रभाव है तो पृच्छा के बिना दीक्षित करना अकल्प्य है। गृहस्थ स्तैन्य गृहस्थ से सम्बन्धी स्तैन्य भी तीन प्रकार का होता है। किसी गृहस्थ महिला के घर सुखाई हुई पिष्टपिंडिका को देखकर कोई क्षुल्लिका साध्वी बिना पूछे उसे चुरा ले, उसको ग्रहण करते हुए यदि गृहस्वामिनी देख ले, उस समय वह क्षुल्लिका साध्वी कुशलता से अन्य साध्वी के पात्र में डाल दे तो यह गृहस्थ से सम्बन्धित आहार स्तैन्य है। आहार स्तैन्य करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है लेकिन अन्य आचार्यों के आदेश के अनुसार आहार स्तैन्य करने वाला अनवस्थाप्य होता है। 1. जीभा 2352-54 / २.जीभा 2355-57 / 3. बृभा 5093 / 4. जीभा 2359, बृभा 5095 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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