________________ 620 जीतकल्प सभाष्य किया लेकिन उसे मोदक की प्राप्ति नहीं हुई। मोदक प्राप्त न होने से वह उन्हीं विचारों में सो गया। रात्रि में वह मोदक वाले घर में गया और कपाट को तोड़कर मोदक खाने लगा। शेष मोदकों को पात्र में लेकर वह उपाश्रय आ गया। प्रात:काल आवश्यक के समय उसने गुरु के समक्ष आलोचना करते हुए कहा कि मैंने इस प्रकार का स्वप्न देखा है। प्रात:काल मोदक से भरे पात्र को देखकर गुरु ने जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा के प्रभाव से हुआ है। गुरु ने उसको लिंग पारांचित प्रायश्चित्त दिया। 67. स्त्यानर्द्धि निद्रा : कुम्भकार दृष्टान्त एक बड़े गच्छ में कुम्भकार ने दीक्षा ग्रहण की। रात्रि में सोते हुए उसके अचानक स्त्यानर्द्धि निद्रा का उदय हो गया। पूर्व जीवन में मिट्टी के छेदन आदि का अभ्यास होने से उसने समीप सोए हुए साधुओं के सिर को छेदना प्रारम्भ कर दिया। कलेवर रूप सिरों को उसने एकान्त में डाल दिया। शेष साधु वहां से दूर चले गए। वह साधु पुनः सो गया। प्रातः उसने गुरु के समक्ष स्वप्न की आलोचना की। साधुओं के सिर और मृत कलेवरों को देखकर गुरु ने जान लिया कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रभाव है। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 68. स्त्यानर्द्धि निद्रा : दंत-उन्मूलन दृष्टान्त भिक्षार्थ घूमते हुए एक साधु को मदोन्मत्त हाथी ने सूंड में पकड़कर हवा में उछाल दिया। किसी प्रकार से पलायन करके वह वहां से भाग गया। वह साधु हाथी के द्वारा कृत पराभव को याद करके उस हाथी के प्रति द्वेष युक्त मन से सो गया। स्त्यानर्द्धि निद्रा के कारण नगर-द्वार को तोड़कर वह साधु हस्तिशाला में गया। हाथी को मारकर उसके दांत उखाड़कर उन्हें उपाश्रय के बाहर रखकर मधु पुनः सो गया। प्रात:काल गुरु को स्वप्न बताकर उसकी आलोचना की। साधुओं ने क्षेत्र-प्रतिलेखना के समय हाथी के दांतों को देखकर जान लिया कि स्त्यानर्द्धि निद्रा में यह सब हुआ है। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 69. स्त्यानर्द्धि निद्रा : वटशाखा दृष्टान्त एक साधु भिक्षा के लिए दूसरे गांव में गया। वहां दो गांवों के बीच एक बड़ा वटवृक्ष था। वह साधु गर्मी से तप्त था, भिक्षा से उसके पात्र भरे हुए थे। वह भूखा-प्यासा ईर्या में उपयुक्त होकर वेगपूर्वक चल रहा था। वटवृक्ष की शाखा से उसका सिर टकरा गया। इससे उसके मन में वटवृक्ष के प्रति प्रद्वेष पैदा हो गया। उन्हीं अध्यवसायों में वह सो गया। स्त्यानर्द्धि निद्रा में उठकर वह वटवृक्ष के पास गया और वटवृक्ष को उखाड़कर उसकी शाखा को उपाश्रय के बाहर फेंक दिया। प्रात:काल प्रतिक्रमण के बाद उसने गुरु के समक्ष अपने स्वप्न की आलोचना की। क्षेत्र-प्रतिलेखना के समय ज्ञात हुआ कि यह स्त्यानर्द्धि निद्रा का प्रभाव था। गुरु ने उसे लिंग पारांचित प्रायश्चित्त प्रदान किया। 1. जीभा 2530, निभा 137 चू पृ.५५, बृभा 5019 टी पृ. 1340 / 2. जीभा 2531, निभा 138 चू पृ. 55,56, बृभा 5020 टी पृ. 1340 / 3. जीभा 2532, निभा 139 चू पृ.५६, बृभा 5021 टी पृ. 1341 / 4. जीभा 2533, निभा 140 चू पृ.५६, बृभा 5022 टी पृ. 1341 /