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________________ 500 जीतकल्प सभाष्य हैं कि कोई अन्य असंदिष्ट व्यक्ति स्थापनाकुल में प्रविष्ट होता है। 2331, 2332. गुरु संघाटक के चले जाने पर भी श्रावक यदि कहते हैं कि गुरु के योग्य आहार आदि ले जाओ। 'गुरु नहीं है' यह बात ज्ञात होने पर भी यदि श्रावक अनुग्रह मानते हैं तो चतुर्लघु, यदि अप्रीति करते हैं तो चतुर्गुरु, यदि श्रावक विपरिणत होकर गुरु और ग्लान के योग्य भक्त का विच्छेद करते हैं तो चतुर्गुरु, यदि क्षपक और प्राघूर्णक के प्रायोग्य आहार नहीं देते तो चतुर्लघु, बाल और वृद्धों के योग्य आहार न देने पर गुरुमास तथा शैक्ष और बहुभक्षी को आहार न देने पर लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2333. अचित्त भक्त सम्बन्धी स्तैन्य का कथन कर दिया, अब सचित्त स्तैन्य के अन्तर्गत शैक्ष सम्बन्धी स्तैन्य के बारे में कहूंगा। 2334-37. 'मैं अमुक साधु के पास दीक्षा ग्रहण करूंगा', यह सोचकर कोई शैक्ष जा रहा हो, बीच में ही यदि कोई साधु उसका अपहरण कर ले अथवा कोई साधु ग्राम के बाहर दीक्षा लेने वाले शैक्ष को एक स्थान पर ठहराकर स्वयं भिक्षार्थ चला जाए। संज्ञाभूमि में गया कोई पथिक साधु उस शैक्ष साधु को देखे। वंदना करने पर साधु शैक्ष से पूछे-'तुम कौन हो?' शैक्ष कहे –'मैं दीक्षा लेना चाहता हूं।' तब मुनि पूछे कि तुम ससहाय हो अथवा असहाय? शैक्ष कहे कि मैं ससहाय हूं। मुनि पूछे कि तुम्हारा सहायक कहां है? शैक्ष कहे-'वे मुझ भूखे और प्यासे के लिए भक्तपान लेने के लिए घूम रहे हैं।' तब वह मुनि कहे कि मेरे पास. अन्न आदि है अतः तुम इसको खाओ। यदि वह अनुकम्पा से भोजन दे तो शुद्ध है। शैक्ष के द्वारा पूछने या न पूछने पर अनुकम्पा और अशठभाव से धर्मकथा करे तो वह शुद्ध है। " 2338. यदि शठता से भोजन दे अथवा धर्मकथा करे तो उसमें दोष होता है। शैक्ष को अपहृत करने के निम्न स्थान हैं२३३९. व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष के अपहरण से सम्बन्धित संक्षेप में ये छह पद होते हैं-१. भक्तप्रदानशैक्ष का अपहरण करने के लिए उसे भक्तपान देना। 2. धर्मकथा-धर्मकथा करना। 3. निगूहनवचनकिसी स्थान पर छिपा देना। 4. व्यापृत करना-किसी अन्य कार्य में लगा देना। 5. झंपना-पलाल आदि से ढक देना। 6. प्रस्थापन-उसे लेकर किसी अन्य ग्राम में प्रस्थित कर देना। 2340. अव्यक्त शैक्ष अर्थात् जिसके अभी दाढ़ी-मूंछ नहीं आई है, उस शैक्ष सम्बन्धी अपहरण के छह स्थानों के निम्न प्रायश्चित्त हैं –भक्तपान देने पर गुरुमास, धर्मकथा करने पर चतुर्लघु, निगूहनवचन बोलने पर चतुर्गुरु, व्याप्त करने पर षड्लघु, झम्पन करने-ढकने पर षड्गुरु तथा प्रस्थापन -स्वयं हरण करने पर छेद प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। व्यक्त शैक्ष के अपहरण सम्बन्धी पदों में साधु को चतुर्लघु से मूल पर्यन्त, उपाध्याय को चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त तथा आचार्य को छहलघु से पाराञ्चित पर्यन्त प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 1. बृभा 5076 टी पृ. 1354 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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