________________ अनुवाद-जी-८७ 501 2341, 2342. कोई शैक्ष अमुक आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण का संकल्प लेकर अभिनिष्क्रमण करे, मार्ग में पूछे जाने पर वह कहे कि मैं अमुक आचार्य के पास प्रव्रजित होने जा रहा हूं। वहां भी अव्यक्त शैक्ष को यदि साधु भक्तपान-दान और धर्मकथा आदि करे तो (भक्तपान का गुरुमास और धर्मकथा का चतुर्लघु प्रायश्चित्त आता है।) यहां असहाय शैक्ष' होने के कारण शेष निगूहन आदि चार पद नहीं होते। 2343. इसी प्रकार प्रव्रज्या लेने की इच्छुक कोई स्त्री शैक्ष अमुक आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण करने की बात सोचती हुई जा रही हो तो उसका हरण करने में होने वाले दोष पुरुष शैक्ष की भांति जानने चाहिए। व्यक्त या अव्यक्त शैक्ष का अपहरण करने में ये दोष हैं२३४४. (शैक्ष का अपहरण करने में निम्न दोष हैं-) * आज्ञा-भंग आदि दोष। * साधर्मिक स्तैन्य। * अनंतसंसारिकत्व। * प्रमत्त साधु की प्रान्त देवता द्वारा छलना। * बोधि की दुर्लभता। * अधिकरण-कलह। 2345. आपवादिक स्थिति में पूर्वगत और कालिकानुयोग के कुछ अंशों का विच्छेद होने आदि कारणों के उपस्थित होने पर शैक्ष का अपहरण कल्प्य होता है। 2346, 2347. कारण उपस्थित होने पर अपहृत शैक्ष जब स्वयं प्रावनिक हो जाए तो वह गुरु के कालगत होने पर स्वयं गण को धारण करे, जब एक शिष्य निष्पन्न हो जाए तो फिर उसकी स्वयं की इच्छा है कि वह वहां रहे या न रहे। 2348, 2349. यदि निष्कारण ही शैक्ष का अपहरण हो तो वह स्वयं पूर्व आचार्य के पास चला जाए। यदि उस संघ के आचार्य अभ्युद्यत मरण या गुरु विहार स्वीकार कर लें तो अन्य किसी योग्य शिष्य के न होने पर उसी गण में उसको आचार्य पद पर आरूढ़ किया जाता है। वह वहां आचार्य पद तब तक धारण करे, जब तक उस गण में अन्य शिष्य तैयार न हो जाएं। 2350. साधर्मिक के सचित्त स्तैन्य का वर्णन सम्पन्न हुआ, अब परधार्मिक स्तैन्य से होने वाले दोषों को कहूंगा। 1. गाथा 2334-40 का कथन ससहाय शैक्ष के संदर्भ में था। इस गाथा में असहाय शैक्ष के संदर्भ में व्याख्या की २.कोई बहुश्रुत आचार्य पूर्वगत या कालिकश्रुत के अध्ययनों का ज्ञाता है। उसका ज्ञान यदि किसी अन्य साधु को नहीं हो तो उस ज्ञान की अव्यवच्छित्ति के लिए ग्रहण और धारणा में समर्थ शिष्य को भक्तपान आदि के माध्यम से विपरिणत करके उसका अपहरण किया जा सकता है। 1. बृभा 5083 टी पृ. 1355 / 3. सूत्र और अर्थ की अव्यवच्छित्ति के पश्चात् आचार्य मध्यरात्रि में यह चिंतन करते हैं कि मैंने दीर्घकाल तक संयम का पालन किया, शिष्यों को वाचना दी, तीर्थ की अव्यवच्छित्ति हेतु शिष्यों का निर्माण किया, अब मेरे लिए आत्महित करना श्रेयस्कर है। अब मैं अनुत्तर गुणों वाला गुरुविहार स्वीकार करूं अथवा अभ्युद्यत मरण का वरण करूं। गुरुविहार का अर्थ है-जिनकल्प आदि की विशेष साधना का स्वीकरण / अभ्युद्यत विहार के तीन प्रकार हैं-जिनकल्प, परिहारविशुद्ध और यथालंदिक की साधना / 1. बृभा 1284 टी पृ. 396 /