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________________ अनुवाद-जी-८७ 499 लघुमास, आकर उपधि गुरु को निवेदित नहीं करने पर या नहीं देने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश के अनुसार ऐसे मुनि अनवस्थाप्य होते हैं। 2318, 2319. व्यापारित स्तैन्य का दूसरा प्रकार यह है किसी श्रावक ने वस्त्र आदि लेने के लिए निमंत्रण दिया। आचार्य ने वस्त्र आदि उपधि लेने का प्रतिषेध कर दिया। वस्त्र देखकर वह मुनि श्रावक के पास जाकर बोला कि मेरी उपधि जल गई है। गुरु ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है अतः मुझे उपधि दो। श्रावक ने उसे उपधि दे दी। श्रावकों को कैसे ज्ञात हुआ? 2320-22. मुनि उपधि लेकर उपाश्रय पहुंचा। श्रावकों ने गुरु के पास आकर पूछा-'उपधि किसकी जल गई थी?' गुरु ने कहा-'उपधि किसी की दग्ध नहीं हुई है। कौन मुनि उपधि लेकर आया है?' यह सुनकर श्रावक को प्रीति या अप्रीति होती है। यदि श्रावक अनुग्रह मानता है तो मुनि को चतुर्लघु, यदि श्रावक को अप्रीति उत्पन्न होती है तो चतुर्गुरु, यदि लोगों में 'चोर' शब्द प्रचारित होता है तो मूल, शेष साधुओं के लिए अन्य द्रव्यों के विच्छेद का प्रसंग होता है तो शेष प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। 2323, 2324. उपधि न जलने पर यह प्रायश्चित्त-विधि है-यथार्थ रूप में उपधि दग्ध होने पर गुरु ने शिष्य को उपधि लाने के लिए भेजा, बीच में ही शिष्य द्वारा अच्छी उपधि को अपनी बना लेने पर चतुर्लघु', गुरु को निवेदन नहीं करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। 2325, 2326. उपधि दग्ध होने पर स्तैन्य का प्रायश्चित्त कहा, अब प्रस्थापित स्तैन्य के बारे में कहूंगा। एक आचार्य ने किसी अन्य आचार्य को सनियोग-पात्रकबंधयुक्त उत्कृष्ट पात्र भेजा। बीच में साधु उसे स्वयं ग्रहण कर ले तो चतुर्लघु, गुरु को नहीं देने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। सूत्र के आदेश से वह अनवस्थाप्य होता है। 2327. इस प्रकार उपधि-स्तैन्य का वर्णन किया, अब आहार-स्तैन्य के बारे में कहूंगा। यदि साधु असंदिष्ट स्थापनाकुल में भिक्षार्थ जाता है तो चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2328, 2329. गुरु की आज्ञा के बिना स्थापनाकुल में प्रवेश करके पूछने या न पूछने पर साधु कहता है कि आचार्य ने मुझे भेजा है तो उसको लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि साधु कहता है कि अतिथि और ग्लान के लिए आया हूं, इस प्रकार श्रावक को भ्रम में डालने पर और मायापूर्वक कहने पर 'गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अथवा आकर गुरु के समक्ष उस आहार की आलोचना नहीं करने पर गुरुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2330. साधु और श्रावक को कैसे ज्ञात होता है कि साधु ने स्तैन्य किया है? आचार्य उत्तर देते हुए कहते 1. द्र. निभा 333 चू पृ. 116 / २.बृभा (5071) में लघुमास प्रायश्चित्त का उल्लेख है। ३.दानश्राद्ध आदि के कुल को स्थापनाकुल कहा जाता है। स्थापना कल के विस्तार हेतु देखें गा.१७७५ का टिप्पण।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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