________________ 52 जीतकल्प सभाष्य 393. तम्हा 'परिच्छणा खलु", दव्वे भावे य होति दोहं पि। तहियं तु जो परिच्छति, दव्वपरिच्छाएँ ते इणमो॥ 394. मोदणपयकढियादी', दव्वे आणेह मे त्ति तो उदिते। जदि उवहसंति ते तू, अहो इमो विगयगेहि त्ति // 395. किह मोच्छिइ त्ति भत्तं?, तेसेवं दव्वओ परिच्छा उ। भावे कसाइज्जती, तेसि सगासे ण पडिवज्जे // 396. अह पुण विरूवरूवे, आणीत दुगुंछते. भणंतऽण्णं / आणेमो त्ति ववसिते, पडिवज्जति तेसि सो पासे // 397. एवं भासी' ते तू, परिच्छए दव्व-भावओ विधिणा। ते वि य तं तु परिच्छे, दुविधपरिच्छाएँ इणमो तु॥ 398. कलमोयणो य पयसा, अण्णं व सभावअणुमतं तस्स। उवणीतं जो कुच्छति', 'दव्वपरिच्छाएँ सो सुद्धो" / 399. भावे पुण पुच्छिज्जति, किं संलेहो कतो त्ति ण कतो त्ति? इति उदिते सो ताहे, हंतूणं अंगुलिं दाए // 400. पेच्छह ता मे एतं, किं कतो ण कतो त्ति एव उदितम्मि। भणति गुरू तो ण तओ, एवं चिय२ ते ण संलीढं / / 401. ण हु ते दव्वसंलेहं, पुच्छे पासामि ते किसं। कीस ते अंगुली भग्गा?, भावं संलिहमाउर३ ! / / 1. च्छणं तू (व्य 4286) / 7. भासो (पा, ला),व्य और नि में गाथाओं के क्रम में यह 2. गाथा का उत्तरार्ध व्य में इस प्रकार है गाथा नहीं है। संलेह पुच्छ दायण, दिटुंतोऽमच्च कोंकणए। 8. कुंछइ (ला, मु)। 3. “यादि (पा, ला, ब), व्य (4287) में गा. 394 एवं 9. तं तु अलुद्धं पडिच्छंति (व्य, 4289, नि 3854) / 395 के स्थान पर निम्न गाथा मिलती है- 10. सल्लेहो (पा, ब, ला)। कलमोदण-पयकढियादि, दव्वे आणेह मे त्ति इति उदिते। ११.व्य (4290) में इस गाथा के स्थान पर निम्न गाथा हैभावे कसाइजंति, तेसि सगासे न पडिवज्जे॥ अज्जो संलेहो ते, किं कतो न कतो ति एवमुदियम्मि। 4. तु.नि 3852, 3853 / भंतुं अंगुलि दावे, पेच्छह किं वा कतो न कतो॥ 5. दुगुच्छए (पा), दुगुंछिते (व्य 4288) / 12. चियं (ब)। 6. तो (व्य)। 13. व्य 4291, नि 3855, कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.३।