________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श न कि उसे राजदण्ड की भांति भारभूत मानना चाहिए। मनुस्मृति के अनुसार अनजान में किए गए पापों का शमन वेदों के अध्ययन और चिन्तन-मनन से हो सकता है लेकिन जानबूझकर राग-द्वेष से किए गए पापों के शमन का एक मात्र उपाय प्रायश्चित्त है।' याज्ञवल्क्य ऋषि मानते हैं कि जानबूझकर किए गए पापों का नाश नहीं होता लेकिन प्रायश्चित्त कर लेने से पाप करने वाला अन्य लोगों के साथ रहने योग्य हो जाता है। दिगम्बर परम्परा में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्त-संग्रह, यतिजीतकल्प, जीतकल्पसार तथा आचार दिनकर आदि ग्रंथ प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं। बौद्ध परम्परा में विनयपिटक के पातिमोक्ख में प्रायश्चित्त का वर्णन मिलता है। वैदिक परम्परा में स्मृतिसाहित्य एवं श्रोत्रसूत्रों में प्रायश्चित्त का प्रचुर वर्णन मिलता है। गौतमधर्मसूत्र तथा वशिष्ठधर्मसूत्र के अनेक अध्याय प्रायश्चित्त से सम्बद्ध हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति के दूसरे अध्याय का नाम ही प्रायश्चित्त है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित्तसार, प्रायश्चित्तविवेक आदि ग्रंथ भी प्रायश्चित्त से सम्बन्धित हैं / जैन आचार्यों ने जहां साधु के अपराध से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का विधान किया है, वहां वैदिक परम्परा में गृहस्थ एवं राजधर्म से सम्बद्ध प्रायश्चित्तों का अधिक वर्णन है। पाश्चात्त्य विद्वानों ने नीतिशास्त्र में दण्ड सिद्धान्त के बारे में गंभीर विवेचन प्रस्तुत किया है, जो छेदसूत्रों में वर्णित प्रायश्चित्तविधि से तुलनीय है। प्रायश्चित्त क्यों? - प्रतिषिद्ध का आचरण करने पर प्रायश्चित्त का विधान है। गुरु के द्वारा निर्दिष्ट प्रायश्चित्त का पालन अपराध की परम्परा को समाप्त करने के लिए आवश्यक है। प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि साधना के पथ पर आगे बढ़ने वाले आत्मानुशासी साधु के लिए प्रायश्चित्त का विधान क्यों? इस प्रश्न का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि प्रायश्चित्त के अभाव में चारित्र नहीं होता, चारित्र के अभाव में तीर्थ की स्थिति नहीं रहती, निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती तथा निर्वाण के अभाव में दीक्षा निरर्थक हो जाती है अतः चारित्र से भी अधिक महत्त्व प्रायश्चित्त का है। पाप करने के पश्चात् उसका अनुताप और प्रायश्चित्त कर लेने पर पाप वैसे ही छूटता जाता है, जैसे सांप से केंचुली। पाराशरस्मृति के अनुसार पाप लगने पर जब तक प्रायश्चित्त न हो, तब तक भोजन नहीं करना चाहिए। 1. मनु 11/46; अकामतः कृतं पापं, वेदाभ्यासेन शुद्ध्यति। कामतस्तु कृतं मोहात्, प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः।। 2. याज्ञ 3/226; . 'प्रायश्चित्तरपैत्येनो, यदज्ञानकृतं भवेत्। कामतो व्यवहार्यस्तु वचनादिह जायते।। 3. व्यभा 52 पडिसेवियम्मि दिज्जति, पच्छित्तं इहरहा उ पडिसेहे। 4. पंव 465 / ५.जीभा 315, 316 / 6. पारा 8/4 /