________________ जीतकल्प सभाष्य के प्रयोजन को भी प्रकट कर रही है। उसके अनुसार आवश्यक योग न करने पर तथा वर्जनीय का त्याग न करने पर जो अतिचार दोष लगता है, उसकी शुद्धि जिससे होती है, वह प्रायश्चित्त है। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी के अनुसार प्रायः का अर्थ अपराध और चित्त का अर्थ शोधन करने से प्रायश्चित्त का अर्थ होगा अपराध का शोधन।' प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त का निम्न निरुक्त भी मिलता है-प्र+अय और चितिइन तीन शब्दों के योग से प्रायश्चित्त की निष्पत्ति होती है-प्र अर्थात् विनष्ट, अय अर्थात् शुभ-विधि तथा चिति अर्थात् संचय-जो शुभ विधि नष्ट हो गई है, उसे पुनः प्राप्त करना प्रायश्चित्त है। इसके अतिरिक्त तत्त्वार्थ राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि', नियमसार, भगवती आराधना की टीका आदि अनेक ग्रंथों में प्रायश्चित्त के निरुक्त एवं परिभाषाएं मिलती हैं। ___जीतकल्पभाष्य में व्यवहार, आरोपणा, शोधि और प्रायश्चित्त को एकार्थक माना है। छेदपिण्ड में छेद, मलहरण, पापनाशन, शोधि, पुण्य, पवित्र और पावन-इन शब्दों को एकार्थक माना है। मूलाचार में पुराणकर्मक्षपण, क्षेपण, निर्जरण, शोधन, धोवण, पुंछण, उत्क्षेपण और छेदन-इनको प्रायश्चित्त का एकार्थक माना है। जो साधु अपनी ज्ञान स्वरूप आत्मा का बार-बार चिन्तन करता है, विकथा आदि प्रमादों से विरक्त रहता है, उसके उत्कृष्ट प्रायश्चित्त होता है। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा के अनुसार केवल मुख से कहने मात्र से प्रायश्चित्त नहीं होता, गुरु के द्वारा जो भी प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है, उसे पूर्ण श्रद्धा से पालन तथा मुझे कम या ज्यादा प्रायश्चित्त मिला है, इस प्रकार की शंका न करके पुनः उस दोष की पुनरावृत्ति नहीं करने वाले का प्रायश्चित्त सार्थक होता है। साधु को प्राप्त प्रायश्चित्त का वहन चारित्र की विशुद्धि के लिए करना चाहिए, १.अनध 7/34 ; यत्कृत्याकरणे वाऽवर्जने च रजोऽर्जितम्। प्राय इत्युच्यते लोकश्चित्तं तस्य मनो भवेत्। सोऽतिचारोऽत्र तच्छुद्धिः प्रायश्चित्तं.....। तच्चित्तग्राहकं कर्म, प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्।। २.त 9/22 भाटी पृ. 254 ; प्रायः शब्देन वाऽपराधोऽभि- 8. जीभा 1844 / धीयते। तेनालोचनादिना सूत्रविहितेन सोऽपराधो विशुद्ध्यति 9. छेदपिण्ड 3 ; ........अस्माच्च हेतोः प्रायश्चित्तम्। पायच्छित्तं छेदो, मलहरणं पावणासणं सोही। 3. प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन पृ.६७। पुण्ण पवित्तं पावणमिदि पायच्छित्तणामाई / / 4. तवा 9/22 पृ. 620; तत्र गुरवे प्रमादनिवेदनं दशदोष- / वर्जितमालोचनम्। पोराणकम्मखवणं, खिवणं णिज्जरण सोधणं धुवणं / 5. ससि 9/20 पृ. 336, प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम्। पुच्छणमुछिवण छिदणं ति पायच्छित्तस्स णामाई।। 6. निसा 113 विटी पृ. 229 ; प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं 11. काअ 455; चित्तं प्रायश्चित्तम्। जो चिंतइ अप्पाणं, णाणसरूवं पुणो पुणो णाणी। 7. भआ 531 विटी पृ. 390; विकहा-विरत्त-चित्तो, पायच्छित्तं वरं तस्स।। 12. काअ 453, 454 /