________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 51 5. चार्वाक-जो निष्फल प्रयत्न करता है और बार-बार उसी का चर्वण करता है, उसका व्यवहार चार्वाक तुल्य होता है। 6. बधिर-बधिर की भांति कहता रहता है कि मैंने प्रतिसेवना सुनी ही नहीं। 7. गुंठ-माया से व्यवहार की समाप्ति करने वाला। 8. अम्ल-तीखे वचन बोलकर व्यवहार करने वाला। पंचकल्पचूर्णि' में इसका अर्थ अंधा व्यवहार किया है लेकिन यहां 'अंब व्यवहार' पाठ होना चाहिए, जिसका अर्थ है खट्टा-दिल फट जाए ऐसा व्यवहार करने वाला। इन आठ प्रकार के दोषों से युक्त आठ अव्यवहारी शिष्य थे। तगरा नगरी के आचार्य के जो आठ व्यवहारी शिष्य थे, उनके नाम इस प्रकार हैं-१. पुष्यमित्र 2. वीर 3. शिवकोष्ठक 4. आर्यास 5. अर्हन्नक 6. धर्मान्वग 6. स्कंदिल 7. गोपेन्द्रदत्त / ये अपने युग में प्रधान व्यवहारच्छेदक अर्थात् प्रायश्चित्तदाता माने जाते थे। अन्यान्य राज्यों में भी उनके व्यवहार की छाप थी। कोई उनके व्यवहार को चुनौती नहीं दे सकता था। प्रायश्चित्त , जैन परम्परा में निर्जरा के बारह भेदों में प्रायश्चित्त अंतरंग तप के अन्तर्गत है। प्रायश्चित्त शब्द के प्राकृत में दो रूप बनते हैं–पायच्छित्त और पच्छित्त। भाष्यकार ने इन दोनों प्राकृत रूपों की निरुक्तपरक व्याख्या की है। जो पूर्वकृत पाप को नष्ट करता है, वह पायच्छित्त–प्रायश्चित्त है अथवा जो प्रायः चित का विशोधन करता है, वह पच्छित्त–प्रायश्चित्त है। आवश्यकचूर्णि के अनुसार असत्य आचरण को स्मरण करके पश्चात्ताप करना प्रायश्चित्त है। आचार्य कुंदकुंद ने निश्चय नय के आधार पर प्रायश्चित्त को - परिभाषित किया है। उनके अनुसार व्रत, समिति, शील और इंद्रिय-संयम का जो परिणाम है, वह प्रायश्चित्त है। क्रोध आदि भावों को क्षय करने की भावना तथा निज गुणों का चिन्तन करना निश्चय प्रायश्चित्त है, यह निरन्तर करणीय है। हेमाद्रि कोश के अनुसार तप के निश्चय से युक्त होना प्रायश्चित्त है।' यह परिभाषा जैन आचार में प्रयुक्त प्रायश्चित्त की संवादी है। अनगारधर्मामृत की परिभाषा प्रायश्चित्त करेइ। 1. पंकच (अप्रकाशित); अंबिलसमाणो नाम अंधं ववहारं ६.निसा 113, 114; वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो। 2. व्यभा 1705-07 / सो हवदि पायछित्तं, अणवरयं चेव कायव्वो।। . ३.स्था 6/66, मूला 361 ; पायच्छित्तं ति तवो जेण विसुज्झदि कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं। 'हु पुवकयपावं। पायच्छित्तं. भणिदं, णियगुणचिंता य णिच्छयदो।। 4. जीभा 5 / 7. संस्कृत हिन्दी शब्दकोश आप्टे पृ. 666; 5. आवचू 2 पृ. २५१चिती संज्ञाने प्रायशः वितथमाचरित प्रायो नाम तपः प्रोक्तं, चित्तं निश्चय उच्यते। मर्थमनुस्सरतीति वा प्रायश्चित्तम्। तपोनिश्चयसंयोगात्, प्रायश्चित्तमितीर्यते।।