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________________ 50 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्तदाता आचार्य कहा गया है। उसकी योग्यता है-जिनप्रणीत आगम में कुशल, धृतिसम्पन्न तथा राग-द्वेष से रहित होना। व्यवहारी दो प्रकार के होते हैं-प्रशंसनीय और अप्रशंसनीय। जो यथार्थ व्यवहारी होते हैं, वे प्रशंसनीय तथा जो यथार्थ व्यवहार नहीं करते, वे अप्रशंसनीय व्यवहारी होते हैं। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तगरा नगरी के एक आचार्य के सोलह शिष्यों का उल्लेख किया है, जिनमें आठ शिष्य व्यवहारी तथा आठ अव्यवहारी थे। ___भाष्यकार ने आचार्य के आठ अव्यवहारी शिष्यों का नामोल्लेख न करते हुए केवल उनके दोषों को प्रतीक एवं रूपक के माध्यम से समझाया है। लेकिन व्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख किया है। उनकी विशेषताओं का उल्लेख नहीं किया। प्रश्न होता है कि अव्यवहारी शिष्यों के नामों का उल्लेख क्यों नहीं किया? इस प्रश्न के समाधान में ऐसी संभावना की जा सकती है कि अव्यवहारी शिष्य आठ से अधिक हो सकते हैं इसलिए उनको प्रतीक के माध्यम से समझाया है। दूसरी बात है कि गलती के रूप में किसी के नाम का उल्लेख करना अव्यवहारिक प्रतीत होता है इसलिए भी संभवतः भाष्यकार ने शिष्यों के नामों का उल्लेख नहीं किया हो। अव्यवहारी शिष्यों के आठ दोष इस प्रकार हैं१. कांकटुक-जैसे कोरडू धान्य अग्नि पर पकाने पर भी नहीं पकता, वैसे ही जिसका व्यवहार दुश्छेद्य होता है, सिद्ध नहीं होता। 2. कुणप-जैसे शव का मांस धोने पर भी पवित्र नहीं होता, वैसे ही जिसका व्यवहार निर्मल नहीं होता। 3. पक्व-पक्व फल की भांति जिस व्यक्ति का व्यवहार स्थिर नहीं रहता, गिर जाता है। जैसे चाणक्य के संन्यास लेने पर चन्द्रगुप्त की लक्ष्मी स्थिर नहीं रही, गिर गईं। पक्व का दूसरा अर्थ करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि वह इस प्रकार संभाषण करता है, जिससे दूसरे सद्वादी भी मौन हो जाते हैं। पंचकल्पचूर्णि में पक्व का अर्थ इस प्रकार किया है-भैंस पानी पीने के लिए तालाब में उतरती है, वह सारे पानी को गुदला देती है। उसी प्रकार पक्व भी व्यवहार को मलिन बना देता है। 4. उत्तर-छलपूर्वक उत्तर देने वाला। वह प्रतिसेवी के साथ दुर्व्यवहार करता है और गीतार्थ मुनि द्वारा उपालम्भ देने पर उन्हें छलपूर्वक उत्तर देता है। जैसे एक व्यक्ति ने दूसरे पर लात से प्रहार किया, पूछने पर वह कहता है कि मैंने पैरों से प्रहार नहीं किया, जूते पहने पैर ने प्रहार किया था। 1. भआ 450-53 / २.व्यभा 1694-1702 / 3. पंकचू (अप्रकाशित); पक्को जहा महिसो पाणीए ओइण्णो, एवं सो वि महिसो विव आडुयालं करेइ /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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