________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श योग्य होता है। इसकी परीक्षा करने के लिए आचार्य उस ग्राहक-शिष्य को विषम स्थानों के विषय में पूछते हैं, जब वह उन विषयों के हार्द को सम्यक् रूप से व्यक्त करने में सक्षम हो जाता है, तब उसे व्यवहार करने के योग्य मान लिया जाता है। यदि व्यवहारी परिवार, ऋद्धि, धर्मकथा, वादलब्धि, तपस्या, निमित्त, विद्या और अधिक संयम-पर्याय-इन आठ विषयों में गौरव करके अपना प्रभुत्व स्थापित करता है तो वह व्यवहार करने के योग्य नहीं होता। अगीतार्थ मुनि गौरव से व्यवहार करता हुआ संसार में सारभूत चतुरंग-मनुष्यत्व, श्रुति, श्रद्धा और संयम में पराक्रम को खोकर भव-सागर में भटक जाता है। भाष्यकार ने व्यवहारी की निम्न विशेषताओं का उल्लेख किया हैप्रियधर्मा-कर्तव्यपरायण। दृढ़धर्मा-अपने निश्चय में अटल। संविग्न-संसारभीरु, वैरागी। वद्यभीरु-पापभीरु। सूत्रार्थविदु-सूत्र और अर्थ का सम्यक् ज्ञाता। अनिश्रितव्यवहारी-राग-द्वेष मुक्त होकर प्रायश्चित्त देने वाला। 'भाष्यकार का अभिमत है कि बहुश्रुत होते हुए भी जो मुनि न्याय नहीं करता, उसका व्यवहार प्रमाण नहीं हो सकता। न्याय से व्यवहार करना व्यवहारी की योग्यता का सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि आचार्य अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त अथवा अल्प प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देता है तो धर्म की तीव्र आशातना होती है तथा मोक्षमार्ग की विराधना होती है। .. 'बत्तीस योगसंग्रह के इकतीसवें योगसंग्रह में इस बात का उल्लेख है कि जो जितने प्रायश्चित्त से शुद्ध होगा, उतना ही प्रायश्चित्त देने से प्रायश्चित्तदाता के योग संग्रहीत होते हैं। वहां धनगुप्त आचार्य का उदाहरण है, जो सम्यक् रूप से व्यवहार करते थे। वे छद्मस्थ व्यक्ति के अपराध भी इंगित-आकार आदि से जानकर, प्रायश्चित्त देकर उसके अपराधों की शुद्धि करते थे। उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त साधु सुखपूर्वक निर्वहन कर लेते थे। इस प्रकार उपयुक्त होकर प्रायश्चित्त देने से उनको विपुल निर्जरा होती थी।' भगवती आराधना में पांच प्रकार के व्यवहारों को विस्तार से जानने वाले, अन्य आचार्यों को प्रायश्चित्त देते देखने वाले तथा स्वयं भी प्रायश्चित्त का प्रयोग करने वाले आचार्य को व्यवहारवान् अथवा १.व्यमा 1710 / ५.व्यभा 1704 / २.व्यमा 1719 / 6. पंकभा 1356 / व्यमा 1723, 1724 // 7. आवनि 905, हाटी प. 156 / *.व्यमा 15 मटी प.९॥