________________ 356 जीतकल्प सभाष्य है, इस प्रकार कहकर शिष्य आचार्य का पराभव करता है। 866. अथवा शिष्य ऐसा कहे कि आचार्य दूसरों को दशविध वैयावृत्त्य का उपदेश देते हैं लेकिन स्वयं वैयावृत्त्य नहीं करते। 867. अथवा आशातना' तीन प्रकार की होती है-मानसिक आशातना, वाचिक आशातना और कायिक आशातना। आचार्य के प्रति मन से प्रद्वेष रखना मानसिक आशातना है। आचार्य के बीच में बोलना वाचिक आशातना है। 868. गुरु के शरीर से संघटन करना, मार्ग में बराबर चलना या गुरु से आगे चलना-यह कायिक आशातना है अथवा गुरु के पूछने पर मौन रहना आदि भी आशातना है। 869-71. गुरु के ये पांच वचन हैं -1. कहना 2 . बुलाना 3. कार्य में नियुक्त करना 4. पूछना एवं 5. आज्ञा देना। गुरु के इन वचनों के प्रति शिष्य के छह प्रतिवचन (प्रतिक्रिया) होते हैं-१. चुप रहना 2. हुंकारा देना 3. क्या है, ऐसा कहना, 4. क्यों बकवास कर रहे हो, ऐसा कहना 5. तुम शांति से क्यों नहीं रहने देते, यह कहना? 6. किस कारण चिल्ला रहे हो, ऐसा कहना? आलाप पद के तूष्णीक आदि छह प्रतिवचन हैं। इसी प्रकार व्याहृत आदि प्रत्येक पद के तूष्णीक आदि छह-छह भेद हैं। .. 872-74. गुरु की आशातना के बारे में कथन कर दिया, अब मैं गुरु के प्रति विनय का भंग कैसे होता 1. जीतकल्पभाष्य में आशातना के तीन भेद किए हैं लेकिन समवायांग तथा दशाश्रतस्कन्ध आदि ग्रंथों में तेतीस ___ आशातनाओं का वर्णन प्राप्त है। उनको यदि साधु प्रयोजन वश करता है तो वह न भारीकर्मा होता है और न आशातना का भागी होता है। जैसे गुरु के आगे चलना आशातना है लेकिन यदि गुरु मार्ग से अनजान हैं, प्रज्ञाचक्षु हैं तो उनके आगे चलना आशातना नहीं है। इसी प्रकार विषम स्थान में गिरने का भय हो या रात्रि का समय हो तो साथ-साथ चलना आशातना नहीं है। १.दश्रुनि 23 ; जाई भणियाई सुत्ते, ताई जो कुणइ कारणज्जाए। सो नहुभारियकम्मो, गणेती गुरुं गुरुवाणे। 2. 'आलत्ते' आदि पांचों स्थानों में कठोर वचनों की उत्पत्ति होती है, ऐसा निशीथभाष्य और बृहत्कल्पभाष्य में उल्लेख मिलता है। बृहत्कल्पभाष्य में इस प्रसंग में चण्डरुद्र का कथानक उल्लिखित है तथा चुप रहना, हुंकारा देना आदि कठोर वचन के प्रकार के रूप में उल्लिखित हैं। १.निभा 863; आलत्ते वाहित्ते, वावारित पुच्छिते णिसटे य। फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्या॥ 2. बृभा 6102 / 3. बृभा 6103, 6104 / 4. बृभा 6105, निभा८६६ 3. निशीथ भाष्य के अनुसार आचार्य द्वारा आलाप आदि किए जाने पर यदि शिष्य तूष्णीक-चुप रहना आदि प्रतिक्रिया करता है तो क्रमशः लघुमास आदि प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं।' १.निभा 867; मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा या छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूल तह दुगंच॥