________________ अनुवाद-जी-९ 357 है, यह कहूंगा। गुरु का विनय' अनेक प्रकार से होता है-१. गुरु के आने पर अभ्युत्थान 2. अभिग्रहणउनके हाथ से सामान लेना 3. आसन देना 4. सत्कार करना 5. सम्मान करना 6. कृतिकर्म करना 7. अंजलि-प्रग्रह-हाथ जोड़ना 8. अनुगति-अनुगमन करना 9. गुरु के बैठने पर उनकी उपासना करना, 10. जाते हुए गुरु को पहुंचाने जाना। आसन आदि देने से सत्कार तथा योग्य उपधि देने से सम्मान होता है। 875. जहां आचार्य बैठे या स्थित रहें, वहां कल्प और संस्तारक करना और उनके आगमन का काल जानकर काल-प्रतिलेखन करके स्थित रहना। 876. कृतिकर्म का अर्थ है-वंदना। दोनों हाथ ऊपर करके ललाट पर लगाना अंजलिप्रग्रह है। शेष अनुगति और स्थित-पर्युपासना-आदि पद कंठ्य-स्वतः ज्ञातव्य हैं। 877. जो शिष्य आचार्य के प्रति इस प्रकार के विनय का आचरण नहीं करता, उसके विनय का भंग होता है। अथवा ज्ञान विनय आदि सात प्रकार का विनय होता है। 878. विनय सात प्रकार का होता है-१. ज्ञान 2. दर्शन 3. चारित्र 4. मन 5. वचन 6. काया 7. औपचारिक। इनका आचरण न करना विनयभंग है। 879. विनयभंग का मैंने संक्षेप में वर्णन कर दिया। अब मैं इच्छाकार आदि सामाचारी न करना-इस संदर्भ में कहूंगा। १.जो आठ प्रकार के कर्म का अपनयन करता है, वह विनय है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार अभ्युत्थान, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति और शुश्रूषा करना विनय है। दशवैकालिक नियुक्ति में इनको कायिक विनय के अन्तर्गत समाविष्ट किया है। वहां कायिक विनय आठ प्रकार का निर्दिष्ट है-१. अभ्युत्थान 2. अंजलीकरण 3. आसनदान 4. अभिग्रह 5. कृतिकर्म 6. शुश्रूषा 7. अनुगमन 8. संसाधन-पहुंचाने जाना। गुरु के प्रति * विनय के विस्तार हेतु देखें-उत्तराध्ययन का प्रथम अध्ययन, दशवैकालिक का नौवां अध्ययन तथा दशवैकालिक नियुक्ति की गाथाएं 286-301 / १.आवनि ८०९;जम्हा विणयति कम्म, अट्ठविधं चाउरंतमोक्खाए। तम्हा उवयंति विऊ, विणओ त्ति विलीणसंसारा॥ २.उ 30/32 अब्भुटाणं अंजलिकरणं तहेवासणदायणं गुरुभत्तिभावसुस्सूसण, विणओ एस वियाहिओ॥ 3. दशनि २९८;अब्भुटाणं अंजलि,आसणदाणं अभिग्गह-किती य।सुस्सूसण अणुगच्छण, संसाधण-काय अट्ठविहो। * 2. दशवैकालिक की हारिभद्रीय टीका में संसाहण का-संसाधनं व्रजतोऽनुव्रजनं अर्थ किया है अर्थात् जाने के लिए उद्यत गुरु को पहुंचाने जाना। यहां पर भाष्यकार ने 'पडिसंसाहण' शब्द का प्रयोग किया है, जो इसी अर्थ का द्योतक है। 1. दशहाटी प. 241 / 3. आगमोक्त विधि से स्वाध्याय आदि के काल का ग्रहण, निर्धारण तथा प्रज्ञापन करना। प्राचीन काल में दिक और नक्षत्र-अवलोकन के द्वारा काल का ज्ञान किया जाता था। काल-प्रतिलेखना के लिए विशेष रूप से मुनि नियुक्त रहते थे। काल-प्रतिलेखना किए बिना स्वाध्याय करने वाला चतुर्लघु प्रायश्चित्त का भागी होता है। * 1. व्यभा 3153-55 /