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________________ अनुवाद-जी-९ 355 855. यहां भी उसी प्रकार चतुर्भगी के अंतिम भंग' में समित होता है। यहां धर्मरुचि अनगार का उदाहरण है', जो परिष्ठापन समिति में जागरूक था। 856. उसने मल, मूत्र के उत्सर्ग में जागरूक रहने का अभिग्रह ग्रहण किया, इंद्र ने उसकी प्रशंसा की। एक देव को इस बात पर श्रद्धा नहीं हुई, वह वहां आया और उसने बहुत सारी चींटियों की विकुर्वणा कर 857-60. प्रस्रवण की बाधा से पीड़ित होने पर दूसरा साधु बोला-'तुम परिष्ठापित कर दो।' वह प्रस्रवण को परिष्ठापित करने के लिए जहां-जहां गया, वहां चींटियां चलती हुई दिखाई दीं। जब साधु क्लान्त हो गया तो वह उस प्रस्रवण को पीने लगा। देवता ने उसे रोकते हुए कहा-'तुम इसे मत पीओ।' देवता उसे वंदना करके चला गया। समितियों में इस प्रकार यतनाशील होना चाहिए। यह सब प्रसंगानुसार कह दिया, अब मैं आशातना के बारे में कहूंगा। 861. गुरु आचार्य होते हैं। ज्ञान आदि आचार हैं। वे आचार की प्ररूपणा करते हैं। उनकी यह आशातना 862, 863. आशातना पद की व्याख्या इस प्रकार है। इसमें दो पद हैं-आय और शातना। आय, लाभ और आगम एकार्थक हैं। ज्ञान आदि के लाभ की शातना-विनाश आशातना' कहलाती है। शातन, ध्वंस और विनाश-ये तीनों शब्द एकार्थक हैं। 864. आय-आत्मा की शातना में यकार लोप होने पर आशातना शब्द निष्पन्न होता है। आचार्य की ये आशातनाएं होती हैं८६५. यह आचार्य छोटा, अकुलीन, दुर्मेधा वाला, द्रमक-रंक, मंदबुद्धि तथा अल्पलाभ की लब्धि वाला 1. देखें गा.८१० का अनुवाद। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 28 / 3. 'आसायणा' शब्द के दो संस्कृत रूप बनते हैं-आशातना और आसादना। प्रथम का अर्थ है-मिथ्याप्रतिपत्ति और दूसरे का अर्थ है-लाभ। मिथ्याप्रतिपत्ति अर्थात् सम्यक् रूप से स्वीकार न करना। सद्भूत अर्थ को अयथार्थ रूप से स्वीकार करना आशातना है। निशीथ चूर्णि के अनुसार ज्ञान, विनय आदि के लाभ का विनाश करने वाली प्रवृत्ति आशातना कहलाती है। दूसरे लाभ के अर्थ में आसादना' का विस्तार दशाश्रुतस्कन्ध की नियुक्ति और चूर्णि में मिलता है। नियुक्तिकार के अनुसार दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और विनय-ये गुरुमूलक होते हैं। जो गुरु की आशातना करता है, वह इन गुणों की आशातना करता है और इन गुणों में विषण्ण रहता है। १.दभुमि 19; मिच्छापडिवत्तीए, जे भावा जत्थ होंति सब्भूता। तेसिं तु वितहपडिवज्जणाए आसायणा तम्हा॥ 2. निभा 2644 चू पृ.८। ३.दनि 24 ; सो गुरुमासायंतो,दंसण-णाण-चरणेसु सयमेव।सीयति कतो आराहणा,से तो ताणि वज्जेज्जा।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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