________________ 354 जीतकल्प सभाष्य 848. जो साधु पहले आंखों से निरीक्षण और प्रमार्जन करके उपकरणों को रखता है अथवा ग्रहण करता है, वह आदानभंडनिक्षेपणा समिति से समित होता है। 849-52. यहां भी पूर्ववत् चतुर्भंगी करनी चाहिए। (द्र. 810-12 गाथा का अनुवाद) इसमें अंतिम भंग सुप्रतिलेखित सुप्रमार्जित ग्राह्य है, इसमें जो उपयुक्त होता है, वह आदानभंडनिक्षेपणा समिति से समित कहलाता है। चौथी समिति का गुरु उदाहरण बताते हैं। कुछ साधु ग्राम में गए। एक साधु ने बिना प्रतिलेखना किए पात्र आदि को एक स्थान पर रख दिया। उनमें से एक साधु प्रतिलेखना करके पात्र आदि रखने लगा तो वह साधु बोला-'इन प्रेक्षित पात्र आदि उपकरणों की पुनः प्रेक्षा क्यों कर रहे हो? क्या यहां सर्प है? यह बात सुनकर सन्निहित देवता ने सर्प की विकुर्वणा कर दी। 853. उपकरणों को खोलने पर वहां सांप दिखाई दिया। साधु के कथन पर उसने मिथ्याकार का उच्चारण किया। समित और असमित-ये दोनों उत्कृष्ट और जघन्य दो प्रकार के होते हैं। 854. मल, मूत्र, श्लेष्म आदि तथा अहितकर अशन-पान आदि को अच्छी तरह से देखे गए प्रदेश में परिष्ठापित करने वाला पांचवीं उत्सर्ग समिति से समित होता है। 1. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 27 / / 2. परिष्ठापन करने का प्रदेश स्थण्डिल कहलाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में चार प्रकार की स्थण्डिल-भूमियों का उल्लेख मिलता है• अनापात-असंलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, वे दूर से भी दिखाई न दें। , * अनापात-संलोक-जहां लोगों का आवागमन न हो, किन्तु वे दूर से दीखते हों। आपात-असंलोक-जहां लोगों का आवागमन भी हो, किन्तु वे दूर से न दीखते हों। * आपात-संलोक-जहां लोगों का आवागमन भी हो और वे दूर से दीखते भी हों। जो स्थण्डिल अनापात-असंलोक, पर के लिए अनुपघातकारी, सम, अशुषिर (पोल या दरार रहित), कुछ समय पहले ही निर्जीव बना हुआ, कम से कम एक हाथ विस्तृत,नीचे से चार अंगुल निर्जीव परत वाला, गांव आदि से दूर, बिलरहित, त्रस प्राणी तथा बीजों से रहित हो-उसमें मुनि उच्चार आदि का उत्सर्ग करे।' 1. उ 24/16-18 / / 3. उत्सर्ग समिति को परिष्ठापनिका समिति भी कहा जाता है। ओघनियुक्ति में परिष्ठापन करने के बाद की विधि का व्यवस्थित वर्णन मिलता है। मुनि कायिकी आदि का परिष्ठापन करके ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करे। यदि वह आनप्राणलब्धि से सम्पन्न हो तो चतुर्दश पूर्वो का स्मरण करे। यदि ऐसा करने में समर्थ न हो तो कम से कम तीन गाथाओं की अनुप्रेक्षा अवश्य करे। बृहत्कल्पभाष्य में परिष्ठापन के समय मुनि को किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, इसका सुंदर विवेचन मिलता है। दिशा-मल-मूत्र उत्सर्ग के समय मुनि पूर्व और उत्तर दिशा में पीठ करके नहीं बैठे क्योंकि ये पूज्य दिशाएं हैं तथा रात्रि में भिक्षाचरों के आवागमन के कारण दक्षिण की ओर पीठ न करे। वायु का वेग जिस ओर हो, उस ओर पीठ करके बैठने में अशभ गंध के परमाण नासिका में प्रविष्ट हो जाते हैं। सूर्य और ग्राम की ओर पीठ करने से भी लोक में अवज्ञा होती है। यदि मुनि के उदर में कृमि हों तो वह वृक्ष की छाया में मलोत्सर्ग करे। मुनि को भूमि का तीन बार प्रमाण: करना चाहिए। १.ओनि २०८:आगम्म पडिक्कतो, अणुपेहे जाव चोद्दस वि पुवे।परिहाणिजातिगाहा, निद्दपमाओ जढो एवं। 2. बृभा 456-58 /