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________________ अनुवाद-जी-९ 353 तपस्या अंगीकार करके यह अभिग्रह किया कि मैं बाल और ग्लान आदि की सेवा करूंगा। उसने तीव्र श्रद्धा से सेवा की। उसका यश प्रख्यात हो गया। स्वयं इंद्र ने उसके गुणों का उत्कीर्तन किया। एक देव ने इस बात पर श्रद्धा नहीं की। उसने दो श्रमण रूपों की विकुर्वणा की। उनमें एक श्रमण अतिसार से ग्रसित होने पर अटवी में स्थित हो गया और दूसरा श्रमण मुनियों के समक्ष जाकर बोला-'एक ग्लान साधु अटवी में पड़ा है, जो साधु वैयावृत्त्य करना चाहता है, वह शीघ्र तैयार हो जाए।' यह बात नंदिषेण ने सुनी। 835-37. बेले की तपस्या के पारणे हेतु लाए हुए आहार को ग्रहण करने की इच्छा होने पर भी मुनि की बात सुनकर वह सहसा उठा और बोला-'वहां क्या कार्य है और क्या अपेक्षा है?' आगंतुक मुनि ने कहा-"वहां पानक नहीं है, उसकी अपेक्षा है।" मुनि नंदिषेण उपाश्रय से पानक के लिए निकला। देव ने वहां पानक को अनेषणीय कर दिया। पहली बार और दूसरी बार पानक नहीं मिला। तीसरी बार उसे पानक की प्राप्ति हुई। अनुकम्पावश नंदिषेण तुरन्त ग्लान मुनि के पास गया। 838,839. ग्लान ने रुष्ट होकर खर, परुष और निष्ठुर शब्दों में आक्रोश प्रकट किया-'हे मंदभाग्य!' तुम अपने नाम मात्र से संतुष्ट हो कि साधुओं के उपकारी के रूप में प्रसिद्ध हो। मैं तुमसे सेवा लेने के उद्देश्य से आया हूं लेकिन मेरी इस अवस्था में भी तुम्हारा आहार के प्रति इतना लोभ है?" 840, 841. ग्लान साधु के उन कठोर वचनों को अमृत की भांति मानता हुआ वह शीघ्रता से मुनि के चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। उसने मल से लिप्त मुनि के शरीर को धोया और कहा–'मुनिवर! उठो, हम आगे चलें। चिकित्सा की ऐसी व्यवस्था करेंगे, जिससे आप शीघ्र स्वस्थ हो जाएं।' ग्लान साधु बोला-'मैं चलने में समर्थ नहीं हूं।' 842, 843. (नंदिषेण बोला)-तुम मेरी पीठ पर चढ़ जाओ। वह ग्लान साधु उसकी पीठ पर चढ़ गया। जब चलने लगा तो ग्लान साधु ने उसकी पीठ पर अत्यन्त दुर्गन्ध युक्त अपवित्र मल का विसर्जन कर दिया और कठोर शब्दों में बोला-'हे दुर्मुण्डित! शीघ्र चलने से तुमने मेरे शरीर में दर्द पैदा कर दिया। इस प्रकार वह पग-पग पर उसके ऊपर गुस्सा करने लगा।' 844-46. नंदिषेण मुनि ने न कठोर वचनों पर ध्यान दिया और न ही असह्य दुर्गन्ध पर। उस दुर्गन्ध को चंदन की भांति मानते हुए उसने मिथ्या दुष्कृत किया। नंदिषेण मन में चिन्तन करने लगा कि मैं क्या करूं? जिससे इस ग्लान साधु को मानसिक समाधि उत्पन्न हो। अनेक प्रकार से प्रयत्न करने पर भी वह नंदिषेण को क्षुब्ध करने में समर्थ नहीं हो सका। तब ग्लान मुनि मूल स्वरूप में आया और उसकी स्तुति-प्रशंसा करके चला गया। दूसरे मुनि ने भी गुरु से आलोचना करके उनके समक्ष नंदिषेण मुनि की धन्यता का अनुमोदन किया। 847. जिस प्रकार मुनि नंदिषेण विपरीत परिस्थिति आने पर भी एषणा समिति से विचलित नहीं हुआ, वैसे ही साधु को एषणा समिति में नित्य यतना रखनी चाहिए, यह एषणा समिति कही गई है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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