________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 23 पर जीत व्यवहार से सम्बन्धित जीतकल्प सूत्र की रचना की। वे संयमी तथा क्षमाश्रमणों में अग्रणी थे। मुनि श्रीचन्द्रसूरि ने उनको जिनमुद्रा के समान माना है। . जीतकल्पभाष्य से पूर्व जिनभद्रगणि ने विशेषावश्यकभाष्य की रचना कर दी थी। इसका एक संवादी प्रमाण यह है कि प्रकाशित हाटी में इस गाथा का क्रमांक 30 है। तिसमयाऽऽहारादीणं...(जीभा 60) में ग्रंथकार ने 'जह हेटावस्सए भणियं' का उल्लेख किया है। पौर्वापर्य का संकेत देने हेतु ग्रंथकार स्वयं 'हेट्ठा' और 'उवरिं' शब्द का प्रयोग करते हैं। यदि इसके रचयिता कोई अन्य आचार्य होते तो वे 'हेट्ठा' शब्द का प्रयोग नहीं करके 'जह आवस्सए' का ही उल्लेख करते। इससे स्पष्ट है कि वे अपने द्वारा ग्रथित विशेषावश्यक भाष्य की गाथाओं के बारे में संकेत दे रहे हैं। आवश्यक नियुक्ति गा. 282 की व्याख्या में विशेषावश्यक' में आठ गाथाएं हैं। इससे यह फलित हो रहा है कि उन्होंने जीतकल्प भाष्य से पूर्व विशेषावश्यक भाष्य की रचना कर दी थी। जैसलमेर में मिलने वाली विशेषावश्यक भाष्य की एक प्रति की अंतिम दो गाथाओं के आधार पर मुनिश्री जिनविजयजी का मंतव्य है कि विशेषावश्यक भाष्य शक सं. 531 (वि. 666) में लिखा गया अत: उनका वही समय होना चाहिए। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने उक्त तथ्य का विरोध करते हुए कहा है कि इन दोनों गाथाओं में कहीं भी जिनभद्रगणि एवं विशेषावश्यक भाष्य के नाम का उल्लेख नहीं हैं। संभव है यह प्रति लेखन के समय का संकेत है क्योंकि ये दोनों गाथाएं अन्य किसी प्रतियों में नहीं मिलती है और न ही टीकाकारों ने इन गाथाओं की व्याख्या की है। : पंडित दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार विशेषावश्यक भाष्य जिनभद्रगणि की अंतिम कृति है. तथा उसकी टीका भी स्वर्गवास के कारण अपूर्ण रही लेकिन यह बात तर्क संगत प्रतीत नहीं होती क्योंकि जीतकल्पभाष्य में उन्होंने अवधिज्ञान के प्रसंग में 'जह हेट्ठावस्सए भणियं' का उल्लेख किया है, इससे स्पष्ट है कि वे भाष्य पहले लिख चुके थे। विशेषावश्यक भाष्य की टीका उनकी अंतिम कृति कही जा सकती है। वह जीतकल्पभाष्य के बाद लिखी गई रचना है। इस संदर्भ में ऐसा संभव लगता है कि भाष्य की क्लिष्टता को देखकर जीवन के सान्ध्य काल में उनके शिष्य-समुदाय ने उन्हें टीका लिखने के लिए प्रेरित किया होगा लेकिन वे उसे पूर्ण नहीं कर सके, बीच में ही दिवंगत हो गए। निष्कर्ष रूप में जिनभद्रगणि सातवीं शताब्दी के आचार्य सिद्ध होते हैं। इस संदर्भ में पंडित १.जीचू पृ.१॥ २.यह संख्या जैन विश्वभारती द्वारा प्रकाशित आवश्यक नियुक्ति खण्ड 1 की है। 3. विभा 589-96 / ४.गण प्रस्तावना प.३३,३४।