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________________ जीतकल्प सभाष्य न वि अभिणिवेसबुद्धी, अम्हं एगंतरोवयोगम्मि। तह वि भणिमो न तीरइ, जंजिणमयमन्नहा काउं॥ . जीतकल्पसूत्र और उसके भाष्य के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में मतभेद है क्योंकि सम्पूर्ण ग्रंथ में ग्रंथकार ने कहीं भी अपना अथवा अपनी गुरु-परम्परा के नाम का उल्लेख नहीं किया है। नंदीसूत्र की पट्टावलि तथा अन्य तपागच्छ और अंचलगच्छ आदि की पट्टावलियों में भी जिनभद्रगणि का कहीं नामोल्लेख नहीं है। खरतरगच्छीय पट्टावलियों में उल्लेख मिलता है पर उनमें अंतर्विरोध है, किसी में उल्लेख है कि वे महावीर के पैंतीसवें पट्ट पर विराजे, दूसरे में अड़तीसवें पट्टधर का उल्लेख है, कहीं-कहीं सत्तावीसवें पट्टधर का भी उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों का मंतव्य है कि ये आचार्य हरिभद्र के पट्ट पर सुशोभित हुए लेकिन ये आचार्य हरिभद्र से पूर्व हो गए थे क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने अपनी टीका में इनका उल्लेख किया है। ___ मुनि जिनविजयजी ने जीतकल्पचूर्णि की भूमिका में तथा पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने गणधरवाद' में विस्तार से उनके समय और कर्तृत्व पर प्रकाश डाला है। एक तर्क उपस्थित होता है कि आचार्य सिद्धसेन का सन्मतितर्क प्रकरण जितना प्रसिद्ध हुआ, महत्त्वपूर्ण और मौलिक ग्रंथ के प्रणेता होते हुए भी आचार्य जिनभद्र एवं उनका साहित्य पन्द्रहवीं शताब्दी तक किसी भी पट्टावलि में प्रकाश में क्यों नहीं आया? संभव लगता है कि उनके महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को देखकर बाद के आचार्यों ने उन्हें प्रतिष्ठित करके युगप्रधान आचार्यों की श्रृंखला में जोड़ने का प्रयत्न किया। उत्तरवर्ती आचार्यों ने भाष्य सुधाम्भोधि, भाष्य पीयूषपाथोधि, भगवान् भाष्यकार, दुःषमान्धकार-निमग्न-जिनवचन-प्रदीप प्रतिभ आदि का सम्बोधन देकर उच्च कोटिक भाष्यकार के रूप में उनका स्मरण किया है। अंकोट्टक ग्राम से प्राप्त दो प्रतिमाओं पर लिखे गए अभिलेख से यह सिद्ध होता है कि जिनभद्रगणि निवृत्ति कुल के वाचनाचार्य थे। इनके माता-पिता तथा परिवार आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती है। जीतकल्पभाष्य की चूर्णि में आचार्य सिद्धसेनगणि ने छह गाथाओं में जिनभद्रगणि की प्रशस्ति की है। प्रशस्ति के अनुसार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, अनुयोगधर, युगप्रधान, ज्ञानियों में प्रमुख, श्रुतज्ञान में दक्ष तथा दर्शन और ज्ञान के उपयोग में लीन रहने वाले थे। ज्ञान मकरंद के पिपासु अनेक मुनि उनके मुख से नि:सृत ज्ञानामृत का पान करने के लिए समुत्सुक रहते थे। स्वसमय-परसमय के ज्ञान से उनका यश दशों दिशाओं में व्याप्त हो गया था। उनका छंद और शब्दशास्त्र का ज्ञान भी उच्च कोटि का था। उन्होंने छेदसूत्रों के आधार 1. विशे 247, विभा 3133 / २.गण प्रस्तावना पृ. 27-47 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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