SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श निशीथभाष्य जिनभद्रगणि से पूर्व संकलित हो चुका था, इसका एक प्रमाण यह है कि इसमें प्रमाद-प्रतिसेवना के संदर्भ में निद्रा का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्यानर्द्धि निद्रा के उदाहरण के रूप में 'पोग्गल-मोयग-दंते'' गाथा मिलती है। यह गाथा विशेषावश्यकभाष्य' में भी है। लेकिन वहां स्पष्ट प्रतीत हो रहा है कि व्यञ्जनावग्रह के प्रसंग में विशेषावश्यक भाष्यकार ने यह गाथा निशीथभाष्य से उद्धृत की है। विशेषावश्यकभाष्य में यह गाथा प्रक्षिप्त-सी लगती है। शेष ओघनियुक्ति, पिंडनियुक्ति, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन पर लिखे जाने वाले भाष्य के कर्ता कौन हैं? इसका कहीं कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। दशवैकालिक भाष्य के कर्ता तो स्वयं हरिभद्र होने चाहिए, इसको स्वयं हरिभद्र के कुछ प्रमाणों से सिद्ध किया जा सकता है। निष्कर्षतः आचार्य क्षेमकीर्ति के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर आचार्य संघदासगणि बृहत्कल्प, व्यवहार और पंचकल्पभाष्य के कर्ता के रूप में सिद्ध होते हैं। निशीथभाष्य किसके द्वारा संकलित किया गया, यह अभी चिन्तन का विषय है। भाष्यकार संघदासगणि का समय पांचवीं-छठी शताब्दी होना चाहिए तथा आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का समय छठी-सातवीं शताब्दी सिद्ध होता है। भाष्य ग्रंथों का रचनाकाल चौथी से सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध तक ही होना चाहिए। यदि भाष्य का रचनाकाल इससे आगे माना जाए तो आगे के व्याख्या ग्रंथों के काल-निर्धारण में अनेक विसंगतियां उत्पन्न होती हैं। प्राचीन काल में आज की भांति मुद्रण की व्यवस्था नहीं थी अतः हस्तलिखित किसी भी ग्रंथ को प्रसिद्ध होने में कम से कम एक शताब्दी का समय तो लग ही जाता था। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण : कर्तृत्व एवं समय ... जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आगमिक परम्परा के महान् समर्थक आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने तर्क और हेतु को भी आगम के आधार पर सिद्ध किया। विशेषणवती ग्रंथ में वे इसी तथ्य को प्रस्तुति देते हुए कहते हैं . मोत्तूण हेउवायं,आगममेत्तावलंबिणो होउं। सम्ममणुचिंतणिज्जं, किं जुत्तमजुत्तमेयं ति।। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के संदर्भ में भी वे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि केवलज्ञान और केवलदर्शन एकान्तरित अर्थात् क्रमबद्ध होते हैं, आगम द्वारा सिद्ध इस बात में मेरी अभिनिवेश बुद्धि नहीं है फिर भी जिनेश्वर भगवान् के मत को अन्यथा रूप में प्रतिपादित करने में मैं समर्थ नहीं हूं १.निभा 135 / २.विभा 235 3. विशे 248 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy