________________ 20 जीतकल्प सभाष्य ऊहापोह नहीं किया है। संघदासगणि आचार्य जिनभद्र से पूर्ववर्ती हैं-इस मत की पुष्टि में अनेक हेतु प्रस्तुत किए जा सकते हैं__ जिनभद्रगणि के विशेषणवती ग्रंथ में निम्न गाथा मिलती है सीहो चेव सुदाढो,जरायगिहम्मि कविलबडुओत्ति। सीसइ ववहारे गोयमोवसमिओ स णिक्खंतो॥ व्यवहार भाष्य में इसकी संवादी गाथा इस प्रकार मिलती है सीहो तिविट्ठनिहतो, भमिउंरायगिह कविलबडुगत्ति। जिणवीरकहणमणुवसम गोतमोवसम दिक्खा य॥ विशेषणवती में प्रयुक्त ववहारे' शब्द निश्चित रूप से व्यवहारभाष्य के लिए हुआ है क्योंकि मूलसूत्र में इस कथा का कोई उल्लेख नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य की रचना व्यवहारभाष्य के पश्चात् हुई, इसका एक प्रबल हेतु यह है कि बृहत्कल्पभाष्य एवं व्यवहारभाष्य कर्ता के समक्ष यदि विशेषावश्यकभाष्य होता तो वे अवश्य विशेषावश्यकभाष्य की गाथाओं को अपने ग्रंथ में सम्मिलित करते क्योंकि यह ज्ञान का एक आकर ग्रंथ है, जिसमें अनेक विषयों का सांगोपांग वर्णन प्राप्त है। व्यवहारभाष्य की 'मणपरमोधिपुलाए' गाथा विशेषावश्यक भाष्य में मिलती है। वह व्यवहारभाष्य (4527) की गाथा है और विशेषावश्यकभाष्य (2593) के कर्ता ने इसे उद्धृत की है, ऐसा प्रसंग से स्पष्ट प्रतीत होता है। अत: व्यवहारभाष्य विशेषावश्यकभाष्य से पूर्व की रचना है, ऐसा मानने में कोई आपत्ति नहीं लगती। व्यवहारभाष्य के कर्ता जिनभद्रगणि से पूर्व हुए, इसका एक प्रबल हेतु यह है कि जीतकल्प चूर्णि में स्पष्ट उल्लेख है कि कल्प, व्यवहार, निशीथ आदि में प्रायश्चित का इतने विस्तार से निरूपण है कि पढ़ने वाले का मति-विपर्यास हो जाता है। शिष्यों की प्रार्थना पर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने संक्षेप में प्रायश्चित्तों का वर्णन करने हेतु जीतकल्प की रचना की। यहां कल्प और व्यवहार शब्द से मूलसूत्र से तात्पर्य न होकर उसके भाष्य की ओर संकेत होना चाहिए क्योंकि मूल ग्रंथ परिमाण में इतने बृहद् नहीं हैं और उनका निर्वृहण मूलतः आचार्य भद्रबाहु ने किया है। दूसरी बात व्यवहारभाष्य की प्रायश्चित्त संबंधी अनेक गाथाएं जीतकल्प में अक्षरशः उद्धृत हैं, जैसेजीतकल्प व्यभा जीतकल्प व्यभा 18 110 114 19 . 111 31,32 तु. 10,11 १.विशे 34 / 3. जीचू पृ. 1, 2 / २.व्यभा 2638 / 22