________________ 174 जीतकल्प सभाष्य अनवस्थाप्य का कालमान आशातना और प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का जघन्य और उत्कृष्ट कालमान इस प्रकार हैअनवस्थाप्य जघन्य उत्कृष्ट आशातना छह मास एक वर्ष प्रतिसेवना एक वर्ष बारह वर्ष संघीय सेवा का प्रयोजन उपस्थित होने पर प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का कालमान न्यून भी हो सकता है तथा प्रायश्चित्त से पूर्णतया मुक्त भी किया जा सकता। दिगम्बर-परम्परा में इस प्रायश्चित्त के दो रूप हैं–निजगणानुपस्थापन तथा परगणानुपस्थापन / जो स्तैन्य, मारक आदि प्रयोग करते हैं, उनको निजगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त तथा दर्प से इन दोषों का सेवन करने वाले को परगणानुपस्थापन प्रायश्चित्त दिया जाता है। हस्तताल आदि करने वाले को तप अनवस्थाप्य दिया जाता है, जिसमें गच्छ में रहते हुए साधु को आलापन आदि दस पदों से बहिष्कृत कर दिया जाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्तकर्ता मुनि की धृति, संहनन आदि वे ही विशेषताएं हैं, जो पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त कर्ता की हैं। यदि साधु उन गुणों से युक्त नहीं है तो अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त होने पर भी उसे मूल प्रायश्चित्त दिया जाता है। अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि गुरु के समक्ष प्रशस्त द्रव्य–वटवृक्ष आदि क्षीरवृक्षों के नीचे, प्रशस्त क्षेत्र-इक्षुक्षेत्र में, प्रशस्त काल-पूर्वाह्न तथा प्रशस्तभाव-चन्द्रबल और ताराबल के प्रबल होने पर आलोचना करके इस तप को स्वीकार करता है। इसके स्वीकार की विधि परिहार तप प्रायश्चित्त की भांति है।' अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त वाहक की देखभाल भिक्षु जिस आचार्य के पास अनवस्थाप्य या पराञ्चित प्रायश्चित्त वहन करता हैं, वे आचार्य प्रायश्चित्त वहन काल में प्रतिदिन उसकी देखभाल और सुखपृच्छा करते हैं। अस्वस्थ होने पर आहार आदि की व्यवस्था भी करते हैं। तप निर्वहन के बाद गृहीभूत और उपस्थापना उपस्थापना का अर्थ है-संयम के उच्च स्थान पर स्थापना अथवा प्रबलता से स्थापना अर्थात् 1. विस्तार हेतु देखें पारांचित प्रायश्चित्त पृ. 184, 185 / 2. बृभा 5129-31, देखें जीभा 2432-34 / 3. देखें इसी भूमिका का पृ. 147, 148 / 4. जीभा 2556 , व्यभा 1211, विस्तार हेतु देखें पाराञ्चित प्रायश्चित्त पृ. 182, 183 /