________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 175 उपस्थापना - छेदोपस्थापनीय चारित्र है। उपस्थापना के संदर्भ में भाष्य साहित्य में तीन आदेश --मतान्तर मिलते हैं - दस, छह और चार। प्रथम आदेश के अनुसार दस उपस्थाप्य इस प्रकार हैं-१. दुष्ट पाराञ्चिक 2. प्रमत्त पाराञ्चिक 3. अन्योन्य प्रतिसेवी 4. साधर्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य 5. अन्यधार्मिक स्तैन्य अनवस्थाप्य 6. हस्तताल अनवस्थाप्य 7. दर्शनवान्त'-जिसने सम्पूर्ण सम्यक्त्व को वान्त कर दिया हो 8. चारित्रवान्त 9. त्यक्तकृत्यसंयम को त्यक्त करके जीवकाय का समारंभ करने वाला 10. शैक्ष / दूसरे आदेश के अनुसार छह उपस्थाप्य होते हैं-१. पाराञ्चिकत्रिक 2. अनवस्थाप्यत्रिक 3. दर्शनवान्त 4. चारित्रवान्त 5. त्यक्तकृत्य 6. शैक्ष / तीसरे आदेश के अनुसार चार उपस्थाप्य हैं-१. दर्शनवान्त 2. चारित्रवान्त 3. त्यक्तकृत्य ४.शैक्ष। अनवस्थाप्य और पाराञ्चित तप का काल पूर्ण होने अथवा कुलादि कार्य सम्पन्न होने पर उसकी उपस्थापना होती है। अर्थात् पुनः व्रतों का आरोपण किया जाता है। इस संदर्भ में कुछ आचार्यों का यह मंतव्य है कि उसको गृहस्थवेश देकर फिर उसकी उपस्थापना की जाती है। आचार्य यदि गृहस्थ वेश कराए बिना उपस्थापना देते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है अथवा आज्ञा भंग आदि दोष होते हैं। पाराञ्चित तप प्रायश्चित्त में जब तक वह क्षेत्र के बाहर रहता है, तब तक गृहस्थलिंग नहीं दिया जाता। वसति में आने पर गृहलिंग दिया जाता है। . गृहस्थ वेश करने के संदर्भ में आचार्यों का मतभेद है। कुछ आचार्य मानते हैं कि स्नान आदि का वर्जन करके उसे केवल श्रेष्ठ गृहस्थ वेश पहनाया जाना ठीक है। कुछ दक्षिणात्य आचार्य मानते हैं कि मात्र वस्त्र युगल पहनाना पर्याप्त है। वह गृहस्थ वेश में परिषद् के मध्य आकर निवेदन करता है कि मुझे सम्बोध दें, मैं धर्म सुनना चाहता हूं। आचार्य उसे धर्म कहते हैं। धर्म श्रवण करके वह पुनः निवेदन करता है कि मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा रखता हूं, मुझे पुनः प्रव्रजित करने की कृपा करे। तत्पश्चात् मुनिवेश देकर उसे प्रव्रजित किया जाता है। 1. जब दर्शन और चारित्र का पूर्णतः वमन होता है, तब उपस्थापना होती है। देशत: वमन में उपस्थापना की भजना है। (जीभा 2035) 2. अनवस्थाप्य और पाराञ्चित का अन्तर्भाव दर्शनवान्त और चारित्रवान्त में हो जाता है। (जीभा 2033) ३.जीभा 2028 / 4. जीभा 2460 / ५.जीभा 2461 / ६.व्यभा 1210 मटीं प.५३ ; स च बहिर्यावत्तिष्ठति तावन्न गृहस्थः क्रियते किन्त्वागत......। 7. जीभा 2462, व्यभा 1207 /