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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 173 ऐसा करने से तीर्थ की परम्परा अविच्छिन्न रहती है। उस स्थिति में यदि उसका प्राणान्त हो जाए तो बिना आलोचना किए भी वह आराधक होता है। यदि आगाढ़ कारण उपस्थित होने पर मुनि अपने सामर्थ्य या विद्यातिशय का प्रयोग नहीं करता तो वह विराधक कहा गया है। हस्तताल आदि का प्रयोग करने में उपाध्याय को नवां अनवस्थाप्य तथा आचार्य को दसवां प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। अथवा पाराञ्चित प्रायश्चित्त योग्य अपराध करने पर भी उपाध्याय को अनवस्थाप्य तथा आचार्य को पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। हस्तालम्ब दुःख से पीड़ित प्राणियों के अशिव उत्पन्न होने पर, नगर पर चढ़ाई तथा रोमाञ्चकारी दुःख उत्पन्न होने पर नागरिक लोग परेशान होकर समर्थ आचार्य के पास जाते हैं। आचार्य या साधु मरण या दुःखभय से पीड़ित उन नागरिकों पर अनुकम्पा करके अचित्त प्रतिमा बनाकर अभिचारुक मंत्रों का जाप करते हुए उस प्रतिमा को मध्य से बींधते हैं। जिससे अशिव आदि उपद्रव दूर हो जाते हैं। इससे कुलदेवता भाग जाता है और देवकृत सारा उपद्रव शान्त हो जाता है। हस्तादान . हस्तादान को अर्थादान भी कहते हैं। निमित्त आदि के द्वारा अर्थ को उत्पन्न करना हस्तादान है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने दो वणिक् और उज्जयिनी के आचार्य की कथा का उल्लेख किया है। अर्थादान में क्षेत्रतः अनवस्थाप्य किया जाता है। निमित्त से अर्थ को उत्पन्न करने वाला कोई पुरुष दीक्षा के लिए उद्यत हो जाए तो उस क्षेत्र में उसकी उपस्थापना नहीं होती क्योंकि पूर्वाभ्यास के कारण लोग उससे निमित्त पूछ सकते हैं / वह ऋद्धि के गौरव से, स्नेह या भय से लाभ-अलाभ का कथन कर सकता है। जैसे खुजली का रोगी खुजली किए बिना नहीं रह सकता है, वैसे ही वह ज्ञान परीषह को सहन नहीं कर सकता। इसलिए उस स्थान पर भावलिंग नहीं देना चाहिए। यदि आपवादिक स्थिति में किसी कारण से लिंग देना पड़े तो अशिव, दुर्भिक्ष आदि कारणों के उपस्थित होने पर उसे लिंग दिया जा सकता है फिर उसको अकेला नहीं छोड़ा जाता। लोगों के द्वारा निमित्त आदि पूछने पर वह कहता है कि मैं निमित्त भूल गया। उत्तमार्थसंथारे की स्थिति में उसको उसी क्षेत्र में लिंग दिया जा सकता है। हस्तताल आदि तीनों पद करने वाले को लिंग देने के विषय में भाष्य में विस्तृत चर्चा है। 1. जीभा 2386-91 / 2. जीभा 2416-18 / ३.जीभा 2393,2394, बृभा 5112,5113 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि . 2, कथा सं५८। ५.जीभा 2406-11 / 6. जीभा 2413-18, बृभा 5120-22 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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