________________ 172 जीतकल्प सभाष्य स्तैन्य करने पर सामान्य साधु, आचार्य और उपाध्याय के प्रायश्चित्त में भी अंतर रहता है। साधर्मिक स्तैन्य और अन्यधार्मिक स्तैन्य के प्रायश्चित्त और उनके बारे में मतान्तरों का भी भाष्यकार ने विस्तृत विवेचन किया है। हस्तताल प्रतिसेवना अनवस्थाप्य का तीसरा प्रकार है-हस्तताल देना। भाष्यकार ने इसकी तीन संदर्भो में व्याख्या की है 1. हस्तताल-हाथ से मारक प्रहार करना। 2. हस्तालम्ब-दुःख से पीड़ित प्राणियों के दुःख को अभिचारुक आदि मंत्रों से दूर करना। 3. अर्थादान–निमित्त आदि के द्वारा गृहस्थ के लिए अर्थ को उत्पन्न करना। हस्तताल दो प्रकार का होता है -लौकिक और लोकोत्तर / लौकिक हस्तताल में पुरुष के वध हेतु खड्ग का प्रयोग करने पर 80 हजार का गुरुक दण्ड होता था। यदि मारक प्रहार करने पर भी पुरुष की मृत्यु नहीं होती तो दण्ड की भजना थी। लोकोत्तर हस्तताल में जो साधु प्रद्वेषवश हाथ, पैर या यष्टि आदि से प्रहार करता है तो वह अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त का भागी होता है। इसमें भी प्रहार करने पर यदि कोई नहीं मरता है तो दण्ड की भजना है। व्यक्ति के मर जाने पर अंतिम पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ___ आपवादिक स्थिति में शिष्य को शिक्षा देने के लिए कान मरोड़ना, सिर पर ठोला मारना, चपेटा देना-ये सब सापेक्ष हस्तताल हैं। मर्मस्थानों की रक्षा करते हुए गुरु ऐसा कर सकते हैं क्योंकि इसके पीछे गुरु की भावना परिताप देना नहीं, अपितु अविनीत और दुःशील शिष्य को सन्मार्ग पर लाना है। इसी प्रसंग को भाष्यकार लौकिक उदाहरण से समझाते हुए कहते हैं कि ऐहलौकिक सिद्धि हेतु शिल्प, लिपि, गणित आदि कला सीखने के लिए जैसे व्यक्ति लौकिक गुरु का भी अभिघात, तर्जना आदि दण्ड सहन करता है। वैद्य भी रोगी को उपालम्भ के साथ कटु औषधि देता है, वैसे ही पारलौकिक हित के लिए आचार्य पहले मधुर वचनों से सारणा करते हैं, बाद में कठोर अनुशासना करते हैं।' आपवादिक स्थिति का उल्लेख करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि चोर, श्वापद आदि का भय होने पर अथवा गण या गणी के अत्यन्त विनाश की स्थिति में गीतार्थ साधु शीघ्र ही हस्तताल का प्रयोग कर सकते हैं। उस समय शक्ति-प्रदर्शन करके पंचेन्द्रियवध करता हुआ भी कृतकरण मुनि दोष को प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसका आलम्बन विशुद्ध होता है। वह अल्प हिंसा के द्वारा भी संघ की महान् सेवा करता है। 3. जीभा 2376-84 / १.बृभा 5124-27 / 2. जीभा 2375, बृभाटी पृ. 1360 /