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________________ कथाएं : परि-२ 597 टंक पर एक पैर उठाने पर हाथी थोड़े कष्ट से वापस उस पैर को नीचे रख सकता है। इसी प्रकार अतिक्रम दोष होने पर थोड़े विशुद्ध परिणामों से मुनि पुनः संयम में स्थित हो जाता है। आगे के दो पैर उठाने पर वह हाथी क्लेशपूर्वक अपने पैरों को पुनः मूल स्थिति में लाता है। इसी प्रकार साधु भी व्यतिक्रम दोष होने पर विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से स्वयं को विशुद्ध कर सकता है। जैसे तीन पैर को ऊपर उठाकर पीछे एक पैर पर खड़ा हाथी अत्यन्त कष्टपूर्वक स्वयं को पूर्व स्थिति में लौटा सकता है, इसी प्रकार अतिचार दोष लगने पर विशिष्टतर शुभ अध्यवसाय से मुनि स्वयं को शुद्ध कर सकता है। जैसे वह हाथी चारों पैरों को आकाश में स्थित करके पुनः उसे लौटाने में समर्थ नहीं होता, वह नियमतः ही भूमि पर गिरकर विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार साधु भी अनाचार में स्थित रहकर नियम से संयम रूपी आत्मा का नाश कर लेता है। टीकाकार कहते हैं कि इस कथानक में हाथी ने चारों पैर ऊपर नहीं उठाए लेकिन दार्टान्तिक में संभावना के आधार पर अनाचार की योजना की है। 36. आधाकर्म की अभोज्यता : वमन-दृष्टान्त ___ वक्रपुर नामक नगर में उग्रतेज नामक सैनिक रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुक्मिणी था। एक बार उग्रतेज का बड़ा भाई सौदास पास के गांव से अतिथि के रूप में आया। उग्रतेज भोजन के लिए मांस लाया और उसे पकाने के लिए रुक्मिणी को दे दिया। घर के कार्य में व्यस्त रहने के कारण वह मांस मार्जार खा गया। इधर सौदास और उग्रतेज की भोजन-वेला होने पर वह व्याकुल हो गई। इसी बीच किसी मृत कार्पटिक के कुत्ते ने मांस को खाकर वायु-संक्षोभ के कारण उसके घर के आंगन में वमन कर दिया। रुक्खिमणी ने सोचा 'यदि मैं किसी दुकान से मांस खरीदकर लाऊंगी तो बहुत देर लग जाएगी। पति और जेठ के भोजन का समय हो गया है अतः इस वमित मांस को अच्छी तरह से धोकर मसाले से उपस्कृत कर दूंगी।' उसने वैसा ही किया। सौदास और उग्रतेज भोजन के लिए उपस्थित हुए। उसने उन दोनों को वह मांस परोसा। गंध विशेष से उग्रतेज ने जान लिया कि यह वान्त मांस है। उसने भृकुटि चढ़ाकर रुक्मिणी को मांस के संबंध में पूछा। क्रोधयुक्त चढ़ी हुई भृकुटि देखकर वह वृक्ष की शाखा की भांति कांपने लगी और यथार्थ स्थिति बता दी। उस मांस को फेंककर उसने दूसरा मांस पकाया, तब दोनों ने भोजन किया। 1. इस कथा का अनुवाद 'धर्मोपदेशमाला' ग्रंथ से संक्षेप रूप में किया गया है क्योंकि टीकाकार ने 'नूपुरपण्डितायाः कथानकमतिप्रसिद्धत्वात् बृहत्वाच्च न लिख्यते किंतु धर्मोपदेशमालाविवरणादेरवगन्तव्यं' का उल्लेख किया है। वहां कथानक आगे भी चलता है लेकिन यहां इतना ही प्रासंगिक है अतः आगे के कथानक का अनुवाद नहीं किया गया है। 2. जीभा 1191, पिनि 86 मटी प.७१, इस कथानक में मतान्तर भी मिलता है। टीकाकार मलयगिरि ने मतान्तर वाली कथा का संकेत भी किया है। उनके अनुसार रुक्मिणी के घर में किसी अतिसार रोग से पीड़ित दुष्प्रभ नामक कार्पटिक ने एकान्त स्थान की याचना की। उसने अतिसार रोग के कारण मांसखंडों का उत्सर्ग किया। मार्जार द्वारा मांस खाने पर पति और जेठ की भोजन-वेला उपस्थित होने पर तथा अन्य मांस प्राप्त न होने पर भयभीत होकर उसने अतिसार में त्यक्त मांसखण्डों को लेकर जल से धोकर उनको मसाले आदि से उपस्कृत करके पका दिया और भोजन-वेला आने पर उन दोनों को परोस दिया। उसी समय मृत सपत्नी के पुत्र गुणमित्र ने अपने पिता और पितृव्य का हाथ पकड़कर उन्हें खाने से रोकते हुए सारी बात बताई। उग्रतेज ने अपनी पत्नी की भर्त्सना की और उस मांस का परिहार कर दिया। (पिनिमटी प.७१)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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