________________ 148 जीतकल्प सभाष्य 2. शेष साधुओं के मन में यह भय पैदा करने के लिए कि अमुक साधु ने ऐसी प्रतिसेवना की, जिससे इसे यह दुष्कर परिहार तप दिया जा रहा है। ऐसी प्रतिसेवना करने पर यह प्रायश्चित्त वहन करना पड़ेगा। कायोत्सर्ग के पश्चात् गुरु पारिहारिक को कहते हैं कि परिहार तप समाप्ति-काल तक मैं तुम्हारे लिए कल्पस्थित हूं अर्थात् वंदना, वाचना आदि के लिए कल्पभाव में स्थित हूं, परिहार्य नहीं हूं। यह गीतार्थ मुनि तुम्हारा अनुपारिहारिक रहेगा। परिहार तप का वहन करने के कारण यह सकल सामाचारी जानता है। पारिहारिक को आचार्य द्वारा आश्वासन परिहार तप को स्वीकार करते हुए यदि कभी पारिहारिक भयभीत हो जाए कि इस उग्र तप को मैं कैसे वहन करूंगा, इतना समय एकाकी कैसे व्यतीत करूंगा तो आचार्य उसे कूप, नदी और राजा के दृष्टान्त से समझाते हैं। कूप आदि के दृष्टान्त स्पष्ट करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि कोई व्यक्ति यदि कूप में गिर जाता है, उस समय यदि कोई व्यक्ति उसे यह कहे कि यह बेचारा मरकर बचा है तो वह भय से अंगों को ढीला छोड़ देता है और डूबकर मर जाता है। यदि तटस्थ व्यक्ति उसे आश्वस्त करे कि तुम डरो मत, तुम्हें डोरी से निकाल दिया जाएगा तो वह आश्वस्त हो जाता है। नदी में डूबने वाले को यदि यह कहा जाए कि तुम तट की ओर आने का प्रयत्न करो, यह तैराक व्यक्ति दृति लेकर तुमको नदी के पार उतार देगा तो वह भयमुक्त हो जाता है। यदि राजा कुपित होकर किसी को मृत्युदण्ड देता है उस समय अन्य व्यक्ति उसे यह कहते हैं कि तुम नष्ट हो गए तो वह उद्विग्न हो जाता है। यदि आश्वस्त करते हुए यह कहा जाता है कि तुम भयभीत मत बनो, हम राजा से प्रार्थना करके तुम्हें दण्ड से मुक्त करवा देंगे, राजा अन्याय नहीं करेगा। इस बात को सुनकर उसका मन समाहित हो जाता है। इन तीनों दृष्टान्तों की भांति आचार्य उसे आश्वस्त करते हैं कि तुम डरो मत, तुमको जो कुछ पूछना है, वह मुझसे पूछना, अनुपारिहारिकों के साथ तुम भिक्षार्थ भ्रमण करना। इस प्रकार आचार्य उसे आश्वस्त करके भय से उपरत कर देते हैं। आलाप आदि दस पदों का परिहार आचार्य सबाल वृद्ध संघ को निर्देश देते हुए कहते हैं कि यह परिहार तप स्वीकार करने वाला आत्मचिन्तन में लीन रहेगा। निम्न आलाप आदि दश स्थानों से तुम्हारा और प्रायश्चित्त वहन कर्ता का कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा१. आलाप --यह पारिहारिक किसी से बातचीत नहीं करेगा, तुम लोग भी इसके साथ आलाप-संलाप मत करना। यह स्वयं अपनी भिक्षा आदि की चिन्ता करेगा, आत्मार्थ चिन्तन करते हुए आत्मशोधन करेगा। 1. जीभा 2437, 2438 / 3. जीभा 2446-54, निचू 3 पृ. 65 / 2. जीभा 2439; 4. जीभा 2440, बृभा 5597 / कप्पट्टितो अहं ते अणुपरिहारी य एस गीतो ते।