________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 147 चाहिए। संघ में श्रुत की अविच्छिन्न परम्परा हेतु सम्पूर्ण दशपूर्वी को यह तप नहीं दिया जाता क्योंकि उसके लिए स्वाध्याय ही महानिर्जरा का कारण है। * अभिग्रह-भिक्षाचर्या में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बन्धित अभिग्रह करने वाला। * तपःकर्म-रत्नावलि' कनकावलि' आदि तप से भावित।' ____ परिहार तप योग्य अपराध होने पर भी साध्वियों को यह प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता क्योंकि वे धृति और संहनन से दुर्बल तथा पूर्वो के ज्ञान से रहित होती हैं। अगीतार्थ तथा प्रथम तीन संहननों से रहित को भी शुद्ध तप दिया जाता है। जो धृति और संहनन से सम्पन्न हैं, उनको परिहारतप प्रायश्चित्त दिया जाता है। परिहार तप वहन का समय ग्रीष्म अथवा शीतकाल में प्राप्त परिहारतप का वहन आचार्य वर्षाकाल में करवाते हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि काल की स्निग्धता के कारण यह काल तपस्या के लिए गुणकारी होता है तथा वर्षाकाल में एक स्थान में रहने के कारण परिहारतप प्रायश्चित्त का वहन सुखपूर्वक हो जाता है। परिहार तप प्रायश्चित्त स्वीकार करने की विधि परिहार तप स्वीकृति के समय आचार्य द्रव्य, क्षेत्र आदि का भी ध्यान रखते हैं। द्रव्य से वट आदि क्षीरवृक्ष के नीचे, क्षेत्र से जिनगृह में, काल से प्रशस्त दिन में पूर्वाह्न के समय तथा भाव से शुभ चन्द्रबल और शुभ नक्षत्रबल में इसकी प्रतिपत्ति करवाते हैं। परिहारतप स्वीकार करने से पूर्व गुरु पूर्व, उत्तर या चरन्ती दिशा की ओर अभिमुख होते हैं। पारिहारिक शिष्य गुरु के वामपार्श्व में कुछ पीछे की ओर स्थित होता है। उस समय आचार्य सम्पूर्ण संघ के साथ पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करते हैं अथवा चतुर्विंशतिस्तव करके नमस्कार महामंत्र का पाठ करके पुनः अस्खलित रूप से चतुर्विंशतिस्तव का कायोत्सर्ग करते हैं। ससंघ कायोत्सर्ग करने के दो कारण हैं -- 1. कायोत्सर्ग के द्वारा संघाटक साधु उसके भयभीत मन को आश्वस्त करके समर्थ बनाते हैं, जिससे वह निर्विघ्न रूप से परिहार तप की समाप्ति कर सके। 1. यह तप हार की कल्पना के अनुसार किया जाता है। हार - श्रीभिक्ष 2 प. 278 / - में ऊपर दोनों ओर दाडिम पुष्प तथा बीच में बड़ा दाडिम 3. निभा 6584-87 चू. पृ. 369, व्यभा 536-41 / पुष्प होता है, उसी कल्पना के अनुसार इस तप की विधि 4. निभा 6591 / होती है। विस्तार हेतु देखें श्रीभिक्षु 2 पृ. 277, 278 5. व्यभा 1338-40 / २.कनकावलि तप भी रत्नावलि तप के समान होता है। ६.निचू 3 पृ.६५। इसमें इतना ही अंतर होता है कि दाडिमपुष्पों में रत्नावलि 7. निचू 4 पृ. 371 / में बेले तथा इसमें तेले किए जाते हैं। विस्तार हेतु देखें