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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श छेदसूत्रों का महत्त्व एवं उनकी संख्या जैन आगम ग्रंथों में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ये ग्रंथ साधु-जीवन का संविधान प्रस्तुत करने के साथ-साथ स्खलना होने पर दंड अथवा न्याय का विधान भी प्रस्तुत करते हैं। अर्थ की दृष्टि से पूर्वगत को छोड़कर अन्य आगमों की अपेक्षा छेदसूत्र अधिक शक्तिशाली हैं। निशीथ भाष्य में इनको उत्तम श्रुत कहा गया है। इसका कारण बताते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि छेदसूत्रों में प्रायश्चित्त-विधि वर्णित है। इससे चारित्र की शुद्धि होती है इसलिए ये उत्तम श्रुत हैं। आचार्यों ने इनके व्याख्या ग्रंथों की महत्ता भी स्थापित की है। भाष्यकार कहते हैं कि जो बृहत्कल्प और व्यवहार की नियुक्ति को अर्थतः जानता है, वह श्रुतव्यवहारी होता है। जीतकल्पचूर्णि में छेदसूत्रों के रूप में निम्न नाम मिलते हैं -कल्प, व्यवहार, कल्पिकाकल्पिक, क्षुल्लकल्पश्रुत, महाकल्पश्रुत और निशीथ। आवश्यक नियुक्ति में महाकल्पश्रुत का उल्लेख मिलता है। संभव है कि तब तक इस ग्रंथ का अस्तित्व था। कल्प, व्यवहार और निशीथ आज उपलब्ध हैं। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में विद्वानों में मतभेद है। विंटरनित्स के अनुसार छेदसूत्रों के प्रणयन का क्रम इस प्रकार है-कल्प, व्यवहार, निशीथ, पिंडनियुक्ति, ओघनियुक्ति और महानिशीथ। विंटरनित्स ने छेदसूत्रों में जीतकल्प का समावेश नहीं किया। अन्य जैन परम्पराओं में भी छेदसूत्रों की संख्या के बारे में मतभेद है। तेरापंथ में छेदसूत्र के रूप में चार ग्रंथ मान्य हैं-दशाश्रुत, बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथ। समयसुंदरगणि ने छेद सूत्रों की संख्या छह स्वीकार की है-१. दशाश्रुतस्कंध 2. व्यवहार 3. बृहत्कल्प 4. निशीथ 5. महानिशीथ 6. जीतकल्प। पंडित कैलाशचन्द्र शास्त्री ने इनमें जीतकल्प के स्थान पर पंचकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना है। हीरालाल कापड़िया के अनुसार पंचकल्पसूत्र के लोप होने के 1. व्यभा 1829; शिष्य अन्य गण की उपसम्पदा लेते थे। किसी गण जम्हा उ होति सोधी, छेदसुयत्थेण खलितचरणस्स। की यह मर्यादा होती थी कि जो यावज्जीवन उस आचार्य तम्हा छेदसुयत्थो, बलवं मोत्तूण पुव्वगतं // का शिष्यत्व स्वीकार करेगा, उसे महाकल्पश्रुत की वाचना 2. निभा 6184 चू पृ. 253; छेदसुयं कम्हा उत्तमसुतं? दी जाएगी। वहां उपसंपद्यमान शिष्य आचार्य को कह भण्णति जम्हा एत्थ सपायच्छित्तो विधी भण्णति- जम्हा सकता है कि वाचना दें या न दें, यह उनकी इच्छा है य तेण च्चरणविसुद्धी करेति, तम्हा तं उत्तमसुतं / / लेकिन यह जिनाज्ञा नहीं है कि यावज्जीवन शिष्यत्व . ३.जीभा५६१-६४, व्यभा 4432-35 / स्वीकार करने वाले को ही श्रुत दिया जाए। (निभा 5572) 4. जीचूपृ.१ कप्प-ववहार-कप्पियाकप्पिय-चुल्लकप्प- 6.A History of the Canonical Literature of Jains, महाकप्पसुय-निसीहाइएसु छेदसुत्तेसु / ____P.4461 ५.(क) आवनि ४८१;जंच महाकप्पसुतं, जाणि य सेसाणि 7. सामाचारी शतक (आगमाधिकार)। छेदसुत्ताणि। 8. जैन धर्म पृ. 259 / (ख) निशीथ भाष्य के अनुसार महाकल्पश्रुत के ज्ञानार्थ
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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