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________________ जीतकल्प सभाष्य पश्चात् जीतकल्प को छेदसूत्रों के अन्तर्गत माना जाने लगा। वर्तमान में पंचकल्प अनुपलब्ध है। जैन ग्रंथावली के अनुसार सतरहवीं शती के पूर्वार्द्ध तक इसका अस्तित्व था। किन्तु निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि इसका लोप कब हुआ? पंचकल्प भाष्य की विषयवस्तु देखकर ऐसा लगता है कि किसी समय में पंचकल्प की गणना छेदसूत्रों में रही होगी। सामाचारी शतक में वर्णित प्रथम पांच छेदसूत्रों का नंदी में उल्लेख मिलता है। जीतकल्पसूत्र का नंदी में उल्लेख नहीं मिलता लेकिन महत्त्वपूर्ण होने के कारण तथा प्रायश्चित्त का विधान करने के कारण बाद के कुछ आचार्यों ने इसका समावेश छेदसूत्र में कर दिया। नंदी में छेदसूत्र जैसा कोई वर्गीकरण नहीं मिलता। वहां व्यवहार, बृहत्कल्प आदि को कालिक श्रुत के अन्तर्गत रखा है। दिगम्बर ग्रंथ गोम्मटसार तथा धवला में इनका समावेश अंगबाह्य में है। धवला और कषाय पाहुड़ में वर्णित कल्प, व्यवहार और . . निशीथ के अधिकार वर्तमान में उपलब्ध कल्प, व्यवहार और निशीथ से बहुत साम्य रखते हैं अतः संभव है आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्दृढ ये ग्रंथ दोनों परम्पराओं में समान रूप से मान्य थे। दिगम्बर साहित्य में जीतकल्प, पंचकल्प और महानिशीथ का उल्लेख नहीं मिलता। यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि इन ग्रंथों को विशेष महत्त्व देने हेतु इनका छेदसूत्र नामक एक नया वर्गीकरण बाद में कर दिया गया। 'छेदसूत्र' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यक नियुक्ति में मिलता है। वहां छेदसूत्रों के लिए 'पदविभाग सामाचारी' शब्द का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् विशेषावश्यक, निशीथभाष्य आदि साहित्य में प्रचुर रूप से इस शब्द का प्रयोग हुआ है। इन प्रायश्चित्तसूत्रों का नामकरण छेदसूत्र क्यों पड़ा, इस संदर्भ में विस्तार हेतु देखें जैन विश्व भारती से प्रकाशित व्यवहारभाष्य के अन्तर्गत व्यवहारभाष्यः एक अनुशीलन भूमिका पृ. 34, 35 / छेदसूत्रों का निर्वृहण क्यों किया गया, इस विषय में भाष्य-साहित्य में विस्तृत चर्चा मिलती है। भाष्यकार के अनुसार नवां पूर्व सागर की भांति विशाल है। उसकी सतत स्मृति के लिए बार-बार परावर्तन की अपेक्षा रहती है, अन्यथा वह विस्मृत हो जाता है। जब आचार्य भद्रबाहु ने धृति, संहनन, वीर्य, शारीरिक बल, सत्त्व, श्रद्धा, उत्साह एवं पराक्रम की क्षीणता देखी, तब चारित्र की विशुद्धि एवं रक्षा के लिए दशाश्रुतस्कंध, कल्प एवं व्यवहार का नि!हण किया। इसका दूसरा हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि 1.AHistoryoftheCanonical Literature of Jains, P. 371 2. नंदी 78 / 3. गोजी 367, 368 / 4. षट्ध पु. 1/1, 2 पृ. 97 / 5. (क) षट्ध पु. 1/1,2 पृ. 98, 99 ; कप्प-ववहारो साहूणं जोग्गमाचरणं अकप्पसेवणाए पायच्छित्तं च वण्णेइ / (ख) कपा पृ. 120 // 6. आवनि 481 / 7. विभा 2295, निभा 6184 / 8. व्यभा 1738 / 9. पंकभा 37-39 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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