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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श चरणकरणानुयोग के व्यवच्छेद होने से चारित्र का अभाव हो जाएगा अतः चरणकरणानुयोग की अव्यवच्छित्ति एवं चारित्र की रक्षा के लिए भद्रबाहु ने इन ग्रंथों का निर्वृहण किया। चूर्णिकार स्पष्ट उल्लेख करते हैं कि आचार्य भद्रबाहु ने आयुबल, धारणाबल आदि की क्षीणता देखकर दशा, कल्प एवं व्यवहार का नि¥हण किया किन्तु आहार, उपधि, कीर्ति या प्रशंसा आदि के लिए नहीं। ___ नि!हण के प्रसंग को दृष्टान्त द्वारा समझाते हुए भाष्यकार कहते हैं कि जैसे सुगंधित फूलों से युक्त कल्पवृक्ष पर चढ़कर फूल इकट्ठे करने में कुछ व्यक्ति असमर्थ होते हैं। उन व्यक्तियों पर अनुकम्पा करके कोई शक्तिशाली व्यक्ति उस पर चढ़ता है और फूलों को चुनकर अक्षम लोगों को दे देता है। उसी प्रकार चतुर्दशपूर्व रूप कल्पवृक्ष पर भद्रबाहु ने आरोहण किया और अनुकंपावश छेद ग्रंथों का संग्रथन किया। इस प्रसंग में भाष्यकार ने केशवभेरी एवं वैद्य के दृष्टान्त का भी उल्लेख किया है।' भाष्य एवं भाष्यकार मूलग्रंथ के हार्द को समझने के लिए उस पर व्याख्या ग्रंथ लिखने का क्रम प्राचीनकाल से चला आ रहा है। जैन आगमों पर अनेक प्रकार के व्याख्या ग्रंथ लिखे गए–नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, दीपिका, अवचूरि आदि। उसके बाद प्रादेशिक भाषाओं-राजस्थानी, गुजराती आदि में भी टब्बा, वार्तिक * आदि व्याख्याएं लिखी गईं। दिगम्बर परम्परा में नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि लिखने की विशेष परम्परा नहीं * रही, केवल कषाय पाहुड़ पर चूर्णि मिलती है। अनुयोग (व्याख्या) के पांच पर्याय मिलते हैं-१. अनुयोग 2. नियोग 3. भाषा 4. विभाषा और 5. वार्तिकइनमें वार्तिक को भाष्य का वाचक माना जा सकता है। आगम व्याख्या-साहित्य में भाष्य का दूसरा स्थान है। नियुक्ति-साहित्य की भांति भाष्य भी प्राकृत भाषा में निबद्ध पद्यबद्ध रचना है। नियुक्ति में संक्षिप्त शैली में केवल पारिभाषिक शब्दों की निक्षेपपरक व्याख्या है। अनेक स्थलों पर तो उसके गूढ़ अर्थ को बिना व्याख्या-साहित्य के समझना कठिन होता है अतः उसकी व्याख्या के लिए भाष्य-साहित्य की आवश्यकता पड़ी। ये विस्तृत शैली में लिखे गए व्याख्या ग्रंथ हैं, इनमें तत्सम्बद्ध आगम एवं उसकी नियुक्ति पर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। नियुक्तियों की भांति भाष्य भी दश ग्रंथों पर लिखे गए हैं-१. आवश्यक 2. दशवैकालिक 3. उत्तराध्ययन 4. बृहत्कल्प 5. पंचकल्प 6. व्यवहार 7. निशीथ 8. जीतकल्प 9. ओघनियुक्ति 10. पिंडनियुक्ति। " 1. पंकभा 42 3. पंकभा 43-46 / मा यहु वोच्छिन्जिहिती, चरणऽणुओगो त्ति तेण णिज्जूढं। 4. पंकभा 47,48 / वोच्छिण्णे बहुतम्मी, चरणाभावो भवेज्जाहि।। 5. आवनि 116 / 2. दश्रुचू पृ.३।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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