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________________ कथाएं : परि-२ 585 19. आर्यरक्षित द्वारा पिता की दीक्षा आर्यरक्षित ने अपने समस्त स्वजनवर्ग को दीक्षित कर दिया लेकिन लज्जा के कारण उनके पिता मुनि वेश को धारण करने के इच्छुक नहीं थे। अनुराग वश वे आर्यरक्षित के साथ रहने लगे। वे सोचते थे'मैं श्रमणदीक्षा कैसे ले सकता हूं? यहां मेरी लड़कियां, पुत्रवधुएं तथा पौत्र आदि हैं, मैं उन सबके समक्ष नग्न कैसे रह सकता हूं?' आचार्य आर्यरक्षित ने अनेक बार उन्हें प्रव्रज्या की प्रेरणा दी। प्रत्युत्तर में उन्होंने कहा—'यदि वस्त्र-युगल, कुंडिका, छत्र, जूते तथा यज्ञोपवीत रखने की अनुमति दो तो मैं प्रव्रज्या ग्रहण कर सकता हूं।' आचार्य ने उनकी सब मांगें स्वीकार कर ली। वे प्रव्रजित हो गए। उन्हें चरण-करण स्वाध्याय करने वालों के पास रखा गया। वे कटिपट्टक, छत्र, जूते, कुंडिका तथा यज्ञोपवीत आदि को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। एक बार आचार्य चैत्य-वंदन के लिए जाने वाले थे। आचार्य ने पहले से ही बालकों को सिखा रखा था। बाहर निकलते ही सभी बालक एक साथ बोल पड़े-'हम सभी मुनियों को वंदना करते हैं, एक छत्रधारी मुनि को छोड़कर।' तब उस वृद्ध मुनि ने सोचा, ये मेरे पुत्र-पौत्र सभी वंदनीय हो रहे हैं। मुझे वंदना क्यों नहीं की गयी? वृद्ध ने बालकों से कहा—'क्या मैं प्रव्रजित नहीं हूं।' वे बोले—'जो प्रव्रजित होते हैं, वे छत्रधारी नहीं होते।' वद्ध ने सोचा. ये बालक भी मझे प्रेरित कर रहे हैं। अब मैं छत्र का परित्याग कर देता हं। स्थविर ने अपने पत्र आचार्य से कहा 'पत्र! अब मझे छत्र नहीं चाहिए।' आचार्य ने कहा 'अच्छा है. जब गर्मी हो, तब अपने सिर पर वस्त्र रख लेना।' बालक फिर बोले—'कुंडिका क्यों? संज्ञाभूमि में जाते समय पात्र ले जाया जा सकता है।' उन्होंने कुंडिका भी छोड़ दी। यज्ञोपवीत का भी परित्याग कर दिया। आचार्य आर्यरक्षित बोले-'हमें कौन नहीं जानता कि हम ब्राह्मण हैं।' वृद्ध मुनि ने सारी चीजें छोड़ दीं, एक कटिपट्ट रखा। बालक फिर बोल पड़े-'हम सभी को वंदना करते हैं, केवल एक कटिपट्टधारी मुनि को छोड़कर।' वृद्ध मुनि बालकों से बोले—'तुम अपनी दादी-नानी को वंदना करो। मुझे और कोई वंदना करेगा। मैं कटिपट्टक नहीं छोडूंगा।' उस समय वहां एक मुनि ने भक्तप्रत्याख्यान किया था। आचार्य रक्षित ने कटिपट्टक के परिहार के लिए एक उपाय सोचा। उन्होंने साधुओं से कहा—'जो इस मृत मुनि के शव को वहन करेगा, उसे महान् फल होगा।' जिन मुनियों को पहले से ही समझा रखा था, वे परस्पर कहने लगे इस शव को हम वहन करेंगे।' आचार्य का स्वजनवर्ग बोला-'इसको हम वहन करेंगे।' वे आपस में कलह करते हुए आचार्य के पास पहुंचे। आचार्य बोले- क्या मेरे स्वजनवर्ग इस निर्जरा के अधिकारी नहीं हैं? जो तुम लोग शव को वहन करने की बात कह रहे हो।' तब स्थविर पिता ने आर्यरक्षित से पूछा—'क्या इसमें बहुत निर्जरा है?' आचार्य बोले—'हां।' तब स्थविर पिता ने कहा कि शव का वहन मैं करूंगा। आचार्य बोले—'इसमें उपसर्ग उत्पन्न होंगे। बालक नग्न कर देंगे। यदि तुम सहन कर सको तो वहन करो। यदि तुम सहन नहीं कर सकोगे तो हमारा अपमान होगा, अच्छा नहीं लगेगा।' इस प्रकार आचार्य ने स्थविर को स्थिर कर दिया।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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