________________ 586 जीतकल्प सभाष्य स्थविर बोला—'मैं सहन करूंगा।' जब उसने शव को उठाया, तब उसके पीछे-पीछे मुनि उठे। बालकों ने एक बालक से कहा—'इनका कटिवस्त्र खोल दो।' उसने कटिवस्त्र खोलना शुरू कर दिया। दूसरे बालक ने कटिवस्त्र आगे करके डोरे से बांध दिया। वह लज्जित होकर भी शव का वहन करने लगा। उसने सोचा_पीछे से मेरी पुत्रवधुएं देख रही हैं। उपसर्ग है. किन्त मझे सहन करना है. इस दष्टि से वह चलता रहा और पुनः उसी अवस्था में लौट आया।' स्थविर को बिना शाटक देख आचार्य ने पूछा-'अरे यह क्या?' स्थविर बोला—'उपसर्ग उत्पन्न हुआ था।' आचार्य बोले—'क्या दूसरा शाटक मंगवाएं?' स्थविर बोला- 'अब शाटक का क्या प्रयोजन? जो देखना था, वह देख लिया। अब चोलपट्टक ही पहनूंगा।' उसे चोलपट्टक दे दिया गया। वह स्थविर भिक्षाचर्या के लिए नहीं जाता था। आचार्य ने सोचा—'यदि यह भिक्षाचर्या नहीं करेगा . तो कौन जानता है, कब क्या हो जाए? फिर यह एकाकी क्या कर सकेगा? इसे निर्जरा भी तो करनी है। इसलिए ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे यह भिक्षा के लिए जाए। इससे आत्म-वैयावृत्य होगी। फिर यह पर-वैयावृत्य भी कर सकेगा।' एक दिन आचार्य ने मुनियों से कहा—'मैं अन्यत्र जा रहा हूं। तुम सभी स्थविर के समक्ष एकाकी-एकाकी भिक्षा के लिए जाना।' सभी ने स्वीकार कर लिया। आचार्य ने दूसरे गांव जाते हुए साधुओं से कहा 'स्थविर की सार-संभाल रखना।' आचार्य चले गए। सभी मुनि एकाकी रूप से अलग-अलग भिक्षा के लिए गए, भक्तपान ले आए और अकेले भोजन करने लगे। स्थविर निरन्तर सोचते रहे—'यह मुनि मुझे भोजन देगा, यह मुनि मुझे भोजन देगा।' परन्तु किसी ने भोजन नहीं दिया। स्थविर क्रुद्ध हो गए परन्तु कुछ नहीं बोले। मन ही मन स्थविर ने सोचा- आचार्य को कल आने दो, फिर देखना, इन मुनियों को क्या-क्या उपालंभ दिलवाता हूं।' दूसरे दिन आचार्य आ गए। आचार्य ने स्थविर से पूछा'स्वास्थ्य कैसा रहा, दिन कैसा बीता?' स्थविर ने कहा—'यदि तुम नहीं रहो तो मैं एक दिन भी जीवित नहीं रह सकता। ये मेरे पुत्र-पौत्र जो मुनि हैं, उन्होंने भी मुझे कुछ आहार लाकर नहीं दिया।' तब आचार्य ने स्थविर के सामने उन सबकी निर्भर्त्सना की। उन्होंने उसे स्वीकार किया। आचार्य बोले 'पात्र लाओ! मैं स्वयं स्थविर पिता मुनि के लिए पारणक लेकर आता हूं।' तब स्थविर ने सोचा-'आचार्य कहां-कहां घूमेंगे? ये कभी लोगों के समक्ष भिक्षा के लिए नहीं गए हैं। मैं ही भिक्षा के लिए जाऊं।' स्थविर स्वयं भिक्षा लेने गए। चिरकाल तक गृहवास में रहने के कारण लोगों से उनका परिचय था। वे घूम रहे थे। उन्हें ज्ञात नहीं था कि द्वार कौनसा है और अपद्वार कौनसा? घूमते-घूमते वे एक घर में अपद्वार से प्रविष्ट हुए। उस घर में उस दिन लड्डु (मिठाई) बने थे। गृहस्वामी बोला—'तुम मुनि हो, अपद्वार से कैसे आए?' स्थविर बोला—'आती हुई लक्ष्मी के लिए क्या द्वार और क्या अपद्वार, जिस रास्ते से वह आए, वही सुंदर है।' गृहस्वामी ने अपने व्यक्तियों से कहा—'इनको भिक्षा दो।' वहां स्थविर को बत्तीस मोदक मिले। वे उन्हें लेकर स्थान पर आए, भिक्षाचरी की आलोचना की। आचार्य बोले 'परंपर से शिष्य-परंपरा चलाने वाले तुम्हारे बत्तीस शिष्य होंगे।' आचार्य ने स्थविर से पूछा