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________________ कथाएं : परि-२ 587 'गृहस्थावस्था में यदि किसी राजकुल से विशेष द्रव्य प्राप्त होता तो किसको देते?' स्थविर बोला—'ब्राह्मणों को।' आचार्य बोले-'इसी प्रकार ये मुनि भी पूजनीय हैं। तुम्हारा यह प्रथम लाभ इनको दो।' स्थविर ने सभी साधुओं में बत्तीस मोदक बांट दिए। स्थविर स्वयं के लिए भक्तपान लाने पुनः प्रस्थित हुए। उन्हें घृतमधु संयुक्त परमान्न मिला। उसने उसे स्वयं खाया। इस प्रकार वह स्थविर मुनि स्वयं की भिक्षा के लिए घूमते परन्तु अनेक बाल, दुर्बल मुनियों के लिए आधारभूत बन गए। 20. मनोगुप्ति : जिनदास कथा . जिनदास नामक श्रेष्ठीपुत्र था। वह श्रावक के व्रतों का पालन करता था। एक बार उसने यानशाला में सर्वरात्रिकी प्रतिमा स्वीकार की। अनुशासन को सहन न करने के कारण उसकी पत्नी स्वैरिणी हो गई थी। वह उसी यानशाला में अपने उपपति (जार) के साथ आई। उसके साथ लोहे का कीलयुक्त पलंग था। अंधेरे में दिखाई न देने के कारण उसने जिनदास के पैर पर मंचक को स्थापित किया और उपपति के साथ अनाचार का सेवन करने लगी। पर्यंक की कीलिका और भार के कारण उसका पैर लहुलुहान हो गया। अत्यन्त वेदना होने पर भी उसने समभाव से उस वेदना को सहन किया। पत्नी के दुराचरण को देखकर भी उस स्थिरमति जिनदास के मन में दुश्चिन्तन पैदा नहीं हुआ। 21. वचनगुप्ति : साधु का वाक्संयम ___ एक साधु अपने ज्ञातिजनों को सम्भालने हेतु उनकी पल्लि में जाने लगा। रास्ते में उसे चोरों ने पकड़ लिया पर चोर सेनापति ने उसे यह कहकर छोड़ दिया कि इस बारे में किसी से कुछ मत कहना। यज्ञयात्रा प्रस्थित हुई। साधु के परिजन विवाह के निमित्त कहीं जा रहे थे अतः वे साधु को रास्ते में ही मिल गए लेकिन उसने चोरों के बारे में उन्हें कुछ नहीं बताया। वह साध भी माता-पिता और भाई आदि के साथ वापिस लौट गया। रास्ते में चोरों ने ज्ञातिजनों को पकड़ लिया और सारा धन चरा लिया। चोरों ने जब साध को देखा तो कहा कि यह वही साधु है, जो हमारे द्वारा छोड़ा गया था। यह सुनकर मां ने आश्चर्यपूर्वक पूछा-"क्या यह साधु तुम लोगों के द्वारा पकड़ा जाकर छोड़ा गया है?" चोरों ने कहा "हां, यह वही साधु है।" मां ने कहा-"छुरी लेकर आओ, मैं अपने स्तन काटूंगी।" चोर सेनापति ने पूछा "तुम अपने स्तन क्यों काटना चाहती हो?" मां ने कहा "मैंने इसको दूध पिलाया है, यह कुपुत्र है। इसने चोरों को देखकर भी इस विषय में हमको कोई सूचना नहीं दी। यह मेरा पुत्र कैसे हुआ?" जब मुनि से पूछा गया कि तुमने ज्ञातिजनों को इसकी सूचना क्यों नहीं दी तो मुनि ने धर्मोपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। धर्मकथा से प्रेरित होकर चोर सेनापति उपशान्त हो गया। उसने माता आदि सबको छोड़ दिया तथा सारा धन समर्पित कर दिया। साधु को ऐसी ही वचनगुप्ति करनी चाहिए।' 1. जीभा 612, आवचू 1 पृ. 406-09, हाटी 1 पृ. 203-05 / 2. आवश्यक चूर्णि के अनुसार उसने शून्यगृह में प्रतिमा स्वीकार की। 3. जीभा 787-90, आव 2 पृ.७८ / 4. जीभा 791-96, आवचू 2 पृ. 78 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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