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________________ जीतकल्प सभाष्य 484. उवगरणेहि विहूणो, जह वा पुरिसो ण साहते कज्ज / एवाऽऽहारपरिण्णी, दिटुंता तत्थिमे होति // 485. लावएरे पवए जोहे, संगामे पत्थिए' इय। आतुरे सिक्खगे चेव, 'दिटुंत समाहिकामेते" // 486. दत्तेणं णावाए, आउध तहोवाहणोसहेहि च। उवगरणेहिं च विणा, जहसंखमसाधगा सव्वे // 487. 'एवाऽऽहारेण' विणा, समाधिकामो ण साहएँ समाधिं / तम्हा समाधिहेतुं', दातव्वो तस्स आहारो॥ 488. धिति-संघयणविजुत्तो, असमत्थों परीसहेऽहियासेउं। फिट्टति चंदगवेज्झा, तेण विणा कवयभूतेणं / / 489. सरीरमुज्झितं जेण, को संगो तस्स भोयणे? समाधिसंधणाहेतुं, दिज्जते सो सि० अंतिए॥ 490. सुद्धं एसित्तु ठावेंति, हाणीए'२ वा दिणे दिणे। पुव्वुत्ताए तु जतणाए, तं तु गोवेंति अण्णहिं॥ 491. णिव्वाघातेणेवं, कालगतविगिंचणा विहीपुव्वं"। कातव्व चिंधकरणं, अचिंधकरणे भवे गुरुगा॥ 492. 'उवगरण-सरीरम्मि'५ य, अचिंधकरणम्मि 'दंडिओ तहियं। मग्गणगवेसणाए, गामाणं . घातणं कुंणति // १.व्य 4368 / 2. लवए (ब)। 3. पंथिगे (व्य 4369, नि 3927) / 4. दिटुंतो कवए ति या (व्य)। 5. पहुवा (व्य 4370) / 6. एव आहा' (पा)। 7. सोहए (ला)। 8. हेऊ (व्य 4371) / 9. “यरूवेण (पा, ब, ला)। 10. उ (व्य 4372) / 11. अंततो (नि 3930) / 12. हाणिओ (मु, ब, ला), हाणी उ (नि 3931) / 13. व्य 4373 / 14. विधिपुव्वं (व्य ४३७४),नि (3932) में इस गाथा का पूर्वार्द्ध इस प्रकार है आयरितो कुंडिपदं, जे मूलं सिद्धिवासवसहीए। 15. सरीरउवगरणम्मि (व्य ४३७५,नि)। १६.डंडिओ (पा)। १७.सो उ रातिणिओ (व्य, नि 3933) /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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