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________________ 174 जीतकल्प सभाष्य 1675. अहुणा गाहाणं तू, वोच्छामी अक्खरत्थमिणमो तू। उद्देस कम्म मोत्तुं, चरमतिगं होति सेसं . तु॥ 1676. पासंडाणं पढम, बितियं समणाण ततिय साधूणं / चरिमतिगं एवं तू, कम्मं ती आहकम्मं तु // 1677. पासंड मीसजाते, साहूमीसे य सघरमीसे य। बादरपाहुडिया तू, विवाह उस्सक्क ओसक्का॥ 1678. आहड सपच्चवायं, विराधणा जत्थ होति आयाए। लोभेण जो उ एसति, सो होती लोभपिंडो तु॥ 1679. सव्वेसु वि एतेसुंरे, उद्देसिगमादिलोभपज्जंते। ____ पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु ऽभत्तटुं॥ अतिरं अणंतणिक्खित्त-पिहित-साहरित-मीसिगादीसुं। संजोग सइंगाले, दुविध णिमित्ते य खमणं तु॥३६॥ 1680. अतिर णिरंतर भण्णति, अणंतकायो तु होति वणकायो। पूवलिमादी किंची, णिक्खित्तं होति एत्थं तु॥ 1681. पिहितं अणंतकाए, साहरियमणंतमीसियं वावि। आदिग्गहणेणं पुण, 'अपरिणतेऽणंतकाए'५ वि॥ 1682. संजोए रसहेतुं, सेंगालं रागसहित तव्वं / पडुपण्ण ऽणागतं वा, दुविध निमित्तं च णातव्वं // 1683. सव्व जहुद्दिढेसुं, दुविध निमित्तादि पज्जयंतेसु / पत्तेयं पत्तेयं, सोधी एत्थं तु ऽभत्तट्ठ / कम्मुद्देसिय-मीसे, धायादि-पगासणादिएसुं च। पुर-पच्छकम्म-कुच्छित संसत्तालित्तकरमत्ते॥३७॥ 1. जीतकल्प की मूल 35 वी गाथा भाष्य की 1086 4. अतिरं (पा, ला)। वी गाथा के बाद है लेकिन उसकी व्याख्या गा. 5. अणंत' (ब)। 1675 से 1679 में की गई है। 6. णेयव्वं (पा)। 2. तू (ता), पा प्रति में 1675 एवं 1676 ये दोनों 7. 1682 एवं १६८३-ये दोनों गाथाएं मुद्रित पुस्तक गाथाएं नहीं है। में नहीं हैं। ये गाथाएं मूलतः जीतकल्प भाष्य की 3. एतेसू (ला)। हैं क्योंकि इनमें जीतकल्प भाष्य गाथा 36 के उत्तरार्ध की व्याख्या है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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