SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 806
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 612 जीतकल्प सभाष्य और मांस से रहित कांटे को देखा। मच्छीमार ने पुनः मांसपेशी लगाकर कांटे को सरोवर में फेंका। पुनः वह मत्स्य मांस खाकर पूंछ से कांटे को धकेलकर पलायन कर गया। इस प्रकार उसने तीन बार मांस खाया लेकिन मच्छीमार उसको पकड़ नहीं सका। ___मांस समाप्त होने पर चिंता करते हुए मच्छीमार को मत्स्य ने कहा—'तुम इस प्रकार क्या चिन्तन कर रहे हो? तुम मेरी कथा सुनो, जिससे तुमको लज्जा का अनुभव होगा। मैं तीन बार बलाका के मुख में जाकर भी उससे मुक्त हो गया। एक बार मैं बलाका के द्वारा पकड़ा गया। उसने मुझे मुख में डालने के लिए ऊपर की ओर फेंका। मैंने सोचा कि यदि मैं सीधा इसके मुख में गिर जाऊंगा तो मेरे प्राणों की रक्षा संभव नहीं है। इसलिए इसके मुख में तिरछा गिरूंगा। ऐसा सोचकर मैंने फुर्ती से वैसा ही किया। मैं उसके मुख से बाहर निकल गया। पुनः दूसरी बार भी मैं उसके मुख में जाकर बाहर निकल गया। तीसरी बार मैं जल . में गिरा अतः दूर चला गया। तीन बार मैं समुद्री तट पर भट्टी के रूप में जलती बालू में गिरा लेकिन शीघ्र ही लहरों के साथ ही वापस समुद्र में चला गया। इसी प्रकार मच्छीमार द्वारा बिछे जाल में इक्कीस बार फंसने पर भी जब तक मात्स्यिक ने जाल का संकोच किया, उससे पहले मैं जाल से निकल गया। एक बार मात्स्यिक ने हृद के जल को बाहर निकालकर उसे खाली करके अनेक मत्स्यों के साथ मुझे पकड़ा। वह सभी मत्स्यों को एकत्र करके तीक्ष्ण लोहे की शलाका में उनको पिरो रहा था। तब मैं दक्षता से मात्स्यिक की दृष्टि बचाकर स्वयं ही उस लोहे के शलाका के मुख पर स्थित हो गया। जब वह मच्छीमार कर्दम लिप्त मत्स्यों को धोने के लिए सरोवर पर गया तब शीघ्र ही मैं जल में निमग्न हो गया। इस प्रकार मुझ शक्ति सम्पन्न को तुम कांटे से पकड़ना चाहते हो , यह तुम्हारी निर्लज्जता है।' इस कथा का निगमन करते हुए कथाकार कहते हैं कि एषणा के 42 दोषों से बचने पर भी हे जीव! यदि तुम ग्रासैषणा के दोषों में लिप्त होते हो तो यह तुम्हारी निर्लज्जता है। 54. परिणामक आदि शिष्यों की परीक्षा एक आचार्य ने शिष्यों की परीक्षा लेने की दृष्टि से उन्हें आदेश दिया कि मुझे आम की आवश्यकता है। उनमें जो परिणामक शिष्य था उसने आचार्य से पूछा-'भंते ! मैं सचित्त आम लाऊं या अचित्त, नमक आदि से भावित लाऊं या अभावित? टुकड़े किए हुए लाऊं या बिना टुकड़े किए हुए, गुठली सहित लाऊं या गुठली रहित? तथा संख्या में कितने लेकर आऊं?' आचार्य ने कहा "प्रयोजन होने पर तुम्हें आम के बारे में कहूंगा। अभी तो मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए ऐसा कहा था।" शिष्यों में जो अपरिणामक शिष्य था वह बोला-'आचार्यप्रवर! क्या आपको पित्त का प्रकोप हो गया है, जो इस प्रकार का आदेश दे रहे हैं। आज मेरे सामने कह दिया लेकिन आगे कभी ऐसी बात मत कहना। दूसरा कोई व्यक्ति आपकी बात न सुन ले। अतिपरिणामक शिष्य बोला—“मैं अभी आम लेकर आता हूं। अभी आम का मौसम है फिर बीत १.जीभा 1606-08, पिनि 302/2-4, मटी प. 170, 171 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy