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________________ कथाएं : परि-२ 611 52. छर्दित दोष : मधु-बिन्दु-दृष्टान्त __ वारत्तपुर' नामक नगर में अभयसेन नामक राजा था। उसके मंत्री का नाम वारत्रक था। एक बार एषणा समिति से धीरे-धीरे चलते हुए धर्मघोष नामक संयमी साधु भिक्षार्थ किसी घर में प्रविष्ट हुआ। मंत्री की पत्नी ने साधु को भिक्षा देने के लिए घृत शर्करा युक्त पायस के पात्र को उलटा / शर्करा मिश्रित एक घृत बिंदु भूमि पर गिर गया। तब मुक्ति-प्राप्ति में दत्तचित्त, सागर की भांति गंभीर, मेरु की भांति निष्प्रकम्प, वसुधा की भाति सर्वंसह, शंख की भांति राग आदि से निर्लेप, महासुभट की भांति कर्मविदारण में कटिबद्ध, भगवान् के द्वारा उपदिष्ट भिक्षा-ग्रहण की विधि में संलग्न मुनि धर्मघोष ने सोचा कि छर्दित दोष से दुष्ट आहार मेरे लिए कल्पनीय नहीं है अतः बिना भिक्षा लिए वे घर से बाहर निकल गए। मदोन्मत्त हाथी पर बैठे मंत्री वारत्रक ने मुनि को बाहर निकलते हुए देखा तो सोचा कि मुनि ने मेरे घर से भिक्षा क्यों नहीं ग्रहण की? मंत्री के चिन्तन करते-करते ही उस शर्करा यक्त घी के बिन्द पर अनेक मक्खियां आ गईं। उनको खाने के लिए छिपकली आ गई। छिपकली को मारने के लिए शरट आ गया। शरट का भक्षण करने हेतु मार्जारी दौड़ी और उसके वध हेतु प्राघूर्णक कुत्ता दौड़ा। उसके वध हेतु भी कोई वसति का रहने वाला दूसरा कुत्ता दौड़ा। दोनों कुत्तों में लड़ाई होने लगी। अपने-अपने कुत्ते के पराभव से चिन्तित मन वाले उनके मालिकों में भी यद्ध छिड गया। यह सारा दश्य अमात्य वारत्रक ने देखा और मन में चिन्तन किया'घृत आदि का बिन्दु मात्र भी भूमि पर गिरने से कलह हो गया इसीलिए हिंसा से डरने वाले मुनि ने घृतबिन्दु को भूमि पर देखकर भिक्षा ग्रहण नहीं की। अहो! भगवान् का धर्म बहुत सुदृष्ट है। सर्वज्ञ के अलावा कौन व्यक्ति ऐसे दोषरहित धर्म का उपदेश दे सकता है?' इस प्रकार चिन्तन करते हए वह संसार से विमख चित्त वाला हो गया। सिंह जैसे गिरिकन्दरा से निकलता है. वैसे ही अपने प्रासाद से बाहर निकलकर मंत्री वारत्रक ने धर्मघोष साध के पास आकर प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। उस महात्मा ने शरीर से अनासक्त रहकर संयम-अनुष्ठान एवं स्वाध्याय से भावित अंत:करण से दीर्घकाल तक संयम-पर्याय का पालन किया फिर क्षपक श्रेणी में आरोहण कर घातिकर्मों का समूल नाश होने पर केवलज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया और कालक्रम से सिद्धिगति को प्राप्त किया। 53. द्रव्य ग्रासैषणा : मत्स्य-दृष्टान्त एक मच्छीमार मत्स्य को ग्रहण करने के लिए सरोवर के पास गया। सरोवर के निकट जाकर उसने एक मांसपेशी से युक्त जाल सरोवर के बीच में फेंका। उस सरोवर में दक्ष तथा परिणत बुद्धि वाला एक वृद्ध मत्स्य रहता था। कांटे में लगे मांस की सुगंध पाकर उसका भक्षण करने हेतु वह वृद्ध मत्स्य कांटे के पास गया और यत्नपूर्वक आस-पास का सारा मांस खा गया। फिर पूंछ से कांटे को दूर कर दिया। मच्छीमार ने सोचा कि मत्स्य जाल में फंस गया है अतः उसने कांटे को अपनी ओर खींचा। उसने मत्स्य 1. जीभा 1603, पिनि 301, मटी प. 169, 170 / २.पिण्डविशुद्धिप्रकरण (प.७६) में यह कथा विस्तृत रूप में दी गई है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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