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________________ कथाएं : परि-२ 599 लोग आकर उद्यापनिका करेंगे।' देवशर्मा ने यह बात स्वीकार कर ली। एक दिन उद्यापनिका के लिए सभा को लीपने हेतु वह सूर्योदय से पूर्व किसी कुटुम्बी के यहां गोबर लेने गया। वहां रात्रि में किसी कर्मचारी को मण्डक, वल्ल और सुरा का पान करने से अजीर्ण हो गया था। पश्चिम रात्रि में उसने गाय के बाड़े में दुर्गन्धयुक्त अजीर्ण मल का विसर्जन किया। उसके ऊपर किसी भैंस ने आकर गोबर कर दिया। ऊपर गोबर होने से वह दुर्गन्धयुक्त मल ढ़क गया अतः देवशर्मा को अंधेरे में ज्ञात नहीं हो सका। वह गोबर सहित मल को लेकर गया और उससे सभा को लीप दिया। उद्यापनिका करने वाले लोग अनेकविध भोजन-सामग्री लेकर वहां प्रविष्ट हुए। वहां उनको अतीव दुर्गन्ध आने लगी, उन्होंने देवशर्मा से पूछा कि यह अशुचिपूर्ण दुर्गन्ध कहां से आ रही है? उसने कहा—'मुझे ज्ञात नहीं है।' उन लोगों ने सभा के आंगन को ध्यान से देखा तो वहां वल्ल आदि के अवयव दिखाई दिए तथा मदिरा की गंध भी आने लगी। उम लोगों को ज्ञात हुआ कि गोबर के मध्य में पुरीष भी था। सभी लोगों ने भोजन को अशुचि मानकर छोड़ दिया। आंगन के लेप को समूल उखाड़कर दुबारा दूसरे गोबर से सभा का लेप करवाया तथा भोजन भी दूसरा पकाकर खाया।' '39. अनिसृष्ट दोष : लड्डुक-दृष्टान्त रत्नपुर नगर में माणिभद्र प्रमुख 32 युवक साथी रहते थे। एक बार उन्होंने उद्यापन के लिए साधारण मोदक बनवाए और समूह रूप से उद्यापनिका में गए। वहां उन्होंने एक व्यक्ति को मोदक की रक्षा के लिए छोड़ दिया। शेष 31 साथी नदी में स्नान करने हेतु चले गए। इसी बीच कोई लोलुप साधु वहां भिक्षार्थ उपस्थित हआ। उसने मोदकों को देखा। लोलुपता के कारण उस साधु ने धर्म-लाभ देकर उस पुरुष से मोदकों की याचना की। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- ये मोदक केवल मेरे अधीन नहीं हैं, अन्य 31 साथियों की भी इसमें सहभागिता है अतः मैं अकेला इन्हें कैसे दे सकता हूं?' ऐसा कहने पर साधु बोला'वे कहां गए हैं?' वह बोला—'वे सब नदी में स्नान करने हेतु गए हैं।' उसके ऐसा कहने पर साधु ने पुनः कहा—'क्या दूसरों के मोदकों से तुम पुण्य नहीं कर सकते? तुम मूढ़ हो जो मेरे द्वारा मांगने पर भी दूसरों के लड्डुओं को दान देकर पुण्य नहीं कमा रहे हो? यदि तुम 32 मोदक मुझे देते हो तो भी तुम्हारे भाग में एक ही मोदक आता है। यदि 'अल्पवय और बहुदान' इस सिद्धान्त को सम्यक् हृदय से जानते हो तो मुझे सारे मोदक दे दो।' साधु के द्वारा ऐसा कहने पर उसने सारे मोदक साधु को दे दिए। लड्डुओं से पात्र भरने पर हर्ष से आप्लावित होकर वह साधु उस स्थान से जाने लगा। - इसी बीच साधु को माणिभद्र आदि साथी सम्मुख आते हुए मिल गए। उन्होंने साधु से पूछा'भगवन् ! आपको यहां किस वस्तु की प्राप्ति हुई?' साधु ने सोचा कि यदि ये मोदक के स्वामी हैं तो मोदक-प्राप्ति की बात सुनकर पुनः मुझसे मोदक ग्रहण कर लेंगे इसलिए 'मुझे कुछ भी प्राप्ति नहीं हुई' 1. जीभा 1203, पिनि 108/1,2 मटी प.८३ /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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