________________ 504 जीतकल्प सभाष्य 2375. लौकिक हस्तताल' में पुरुषवध हेतु प्रयुक्त खड्ग आदि का गुरुक दण्ड होता है। केवल दण्डप्रहार में भजना है। अब मैं लोकोत्तरिक दण्ड के बारे में कहूंगा। 2376. जो साधु हाथ-पैर अथवा यष्टि आदि से प्रहार करता है, वह अनवस्थाप्य होता है। प्रहार करने पर भी यदि कोई नहीं मरता है तो दण्ड की भजना है। मर जाने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। 2377. अपवाद पद में शिष्य को विनय-शिक्षा देते हुए हस्तताल का प्रयोग किया जा सकता है अथवा : घोर जंगल में चोर, श्वापद आदि का भय होने पर हस्तताल का प्रयोग किया जा सकता है। 2378. शिष्य को विनय-शिक्षा देने के लिए कान मोड़ना, सिर पर ठोला मारना, चपेटा देना–ये सब सापेक्ष हस्तताल हैं, मर्मस्थानों की रक्षा करते हुए यह सब किया जाता है। 2379. शिष्य प्रश्न पूछता है कि दूसरे को परिताप देना असाता वेदनीय कर्मबंध का हेतु है, फिर आपने . इसकी अनुज्ञा कैसे दी? आचार्य कहते हैं कि इसका कारण सुनो। 2380. यह सत्य है कि जिनेश्वर भगवान् ने परपरिताप को असाता का हेतु बताया है। किन्तु यह परिताप दुःशील और अविनीत शिष्य के लिए आत्महित और परहित होने के कारण वांछनीय है। 2381. शिल्प तथा नैपुण्य-लिपि, गणित आदि कला को सीखने के लिए लौकिक गुरु का व्याघात आदि सहन किया जाता है, वह इहलोक के लिए मधुर फल देने वाला होता है, यह उपमा है। 2382. अथवा रोगी को पहले मधुर वचनों से औषध दी जाती है, बाद में देहहित के लिए ताड़न आदि के द्वारा भी औषधि दी जाती है। 2383. इसी प्रकार भव रोग से पीड़ित की भी पहले अनुकूल वचनों से सारणा की जाती है, बाद में परलोक के हित के लिए प्रतिकूल अनुशासना भी की जाती है। 2384. विनय से युक्त शिष्य इहलोक और परलोक में अनुत्तर फल को प्राप्त करता है। वह महाभाग संवेग आदि इन गुणों से युक्त होता है। 2385. संविग्न, मार्दवयुक्त, गुरु को नहीं छोड़ने वाला, गुरु के अनुकूल चलने वाला, विशेषज्ञ, उद्युक्तस्वाध्याय में लीन रहने वाला, वैयावृत्त्य आदि में अपरितान्त-इन गुणों से युक्त साधु इष्ट प्रयोजन को प्राप्त कर लेता है। 1. बृहत्कल्प की टीका के अनुसार लौकिक हस्तताल में खड्ग आदि का प्रयोग करने पर पुरुषवध हो जाने से 80 हजार रुपयों का गुरुक दंड होता है। यदि प्रहार करने पर पुरुष नहीं मरता है तो दंड की भजना है। आनंदपुर में प्रहार करने पर यदि व्यक्ति नहीं मरता तो केवल पांच रुपए का दंड होता था। १.बृभा 5104 टी पृ. 1360 / 2. व्यभा 6 मटी प.६। 2. यहां विनय शब्द का प्रयोग शिक्षा के अर्थ में भी प्रयुक्त है। ग्रहण शिक्षा और विनय शिक्षा देते हुए आचार्य शिष्य के विकास हेत हस्त-ताडन का प्रयोग कर सकते हैं। १.बृभाटी पृ.१३६० ; इह विनयशब्दः शिक्षायामपि वर्तते....ततोऽयमर्थः-'विनयस्य' ग्रहणशिक्षाया आसेवनाशिक्षाया वा ग्राहणायां क्रियमाणायां कर्णामोटकेन खड्डकाभिः चपेटाभिर्वा /