________________ पाठ-संपादन-जी-१ 73 591. संसारखडपडितो', णाणादवलंबितुं समुत्तरतिरे। मोक्खतडं जह पुरिसो, वल्लिविताणेण विसमाओ॥ 592. नाणादीपरिवुड्डी, ण भविस्सति मे असेवओ बितियं / तेसिं 'पसंधणट्ठ व, सालंबणिसेवणा होति / 593. 'जा पुण णिक्कारणओ", अपसत्थालंबणा य 'सेवा उ*। अमुगेण वि आयरियं, को दोसो वा' णिरालंबा // 594. जं सेवितं तु बितियं, गेलण्णादी' असंथरंतेणं। हट्ठो वि पुणो तं चिय, चियत्तकिच्चो णिसेवंतो॥ 595. बल-वण्ण-रूवहेतुं, फासुगभोई वि होति अपसत्थो। - किं पुण जो अविसुद्धं, णिसेवते वण्णमादट्ठा ? // 596. सेवंतो तु अकिच्चं, लोए लोउत्तरम्मि यर विरुद्ध / परपक्ख सपक्खे वा, वीसत्था सेवणमलज्जे // 597. अपरिच्छितुमायवए'२, णिसेवमाणो तु होति अपरिच्छो। तिगुणं जोगमकाउं, बितियासेवी अकडजोगी। 598. बितियपदे जो तु परं, तावेत्ता णाणुतप्पती२ पच्छा। सो होति अणणुतावी, किं पुण दप्पेणसेवित्ता? / / 599. 'करण-भएसु तु५ संका'६, करणे कुव्वं ण संकति कयाइ। इहलोगस्स ण भायति, परलोए वा भया एसा / / 600. एसा दप्पियसेवा, दसभेद समासतो समक्खाता। एत्तो कप्पियसेवं, चउवीसविहा इमाऽऽहंसु॥ 1. रगडु (नि 465) / 2. समारुहति (नि)। 3. णट्ठा (नि 466) / 4. एसा (नि)। ५.णिक्कारणपडिसेवा (नि 467) / ६.जा सेवा (नि)। ७.व (ला)। 8. 'लंब (मु)। 9. ण्णाइसु (नि 468) / 10. नि 469 / 11. वि (नि 470) / 12. अपरिक्खिउमा (नि 471) / 13. "प्पते (नि 472) / 14. दप्पो (पा, ला)। 15. करणे भए य (नि 473) / १६.संकत्ति इह छंदोभंगभया णिगारलोवो द्रष्टव्यः (निच 1 पृ. 159) / 17. कुव्वंति (ब)।