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________________ 132 जीतकल्प सभाष्य 15. कपित्थ-जूं आदि के भय से गोलाकार कपड़ा जंघाओं के बीच रखकर कायोत्सर्ग करना। 16. शीष-प्रकंपन–यक्षाविष्ट व्यक्ति की भांति सिर को धुनते हुए कायोत्सर्ग करना। . 17. मूक-बिना बोले हूं हूं शब्द करते हुए कायोत्सर्ग करना। 18. अंगुलि-आलापकों को गिनने के लिए अंगुलियों को चालित करते हुए कायोत्सर्ग करना। 19. भू-भौहों को नचाते हुए कायोत्सर्ग करना। 20. वारुणी-मदिरा की भांति बुदबुदाते हुए कायोत्सर्ग करना। 21. प्रेक्षा-बंदर की भांति होठों को चालित करते हुए कायोत्सर्ग करना। मूलाचार तथा कार्तिकेय अनुप्रेक्षा की टीका में कायोत्सर्ग के निम्न 32 दोष मिलते हैं। इनमें अधिकांश दोष आवश्यक नियुक्ति से मिलते हैं। कुछ अतिरिक्त दोष भी हैं-१. घोटकपाद, 2. लतावक्र, 3. स्तम्भावष्टम्भ, 4. कुड्याश्रित, 5. मालिकोद्वहन, 6. शबरीगुह्यगूहन, 7. शृंखलित, 8. लम्बित, 9. उत्तरित, 10. स्तनदृष्टि, 11. काकावलोकन, 12. खलीनित, 13. युगकन्धर, 14. कपित्थमुष्टि, 15. शीर्षप्रकम्पित, 16. मूकसंज्ञा, 17. अंगुलिचालन, 18. भ्रूक्षेप, 19. उन्मत्त, 20. पिशाच, 21. पूर्वदिशावलोकन, 22. आग्नेयदिशावलोकन, 23. दक्षिणदिशावलोकन, 24. नैऋत्यदिशावलोकन, 25. पश्चिमदिशावलोकन, 26. वायव्यदिशावलोकन, 27. उत्तरदिशावलोकन, 28. ईशानदिशावलोकन, 29. ग्रीवोन्नमन, 30. ग्रीवावनमन, 31. निष्ठीवन, 32. अंगस्पर्श।' भगवती आराधना की विजयोदया टीका में कायोत्सर्ग के इन दोषों के क्रम में अंतर है तथा कहींकहीं दो दोषों को एक साथ मिला दिया है। टीकाकार ने आवश्यक नियुक्ति से इन दोषों को लिया है, ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। - इसके अतिरिक्त कायोत्सर्ग के समय मुनि यदि नींद का बहाना करता है, सूत्र और अर्थ विषयक पृच्छा करता है, कांटा निकालने लगता है, मल और मूत्र का विसर्जन करने के लिए चला जाता है, धर्मकथा में प्रवृत्त हो जाता है, रोगी होने का बहाना करता है तो माया के कारण कायोत्सर्ग शुद्ध नहीं होता। उच्छ्वास का कालप्रमाण आचार्यों ने श्वासोच्छ्वास प्रमाण के आधार पर व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त को निर्धारित किया है। वैदिक परम्परा में भी प्राणायाम के द्वारा पाप-मुक्ति की बात कही गई है। मनुस्मृति के अनुसार प्रणव से युक्त 1. आवनि 1036, 1037 / 2. मूलाचार में दोषों के नामों में अंतर है। 3. मूला 670-72, टी पृ. 486-88 / 4. भआटी पृ. 163 / 5. आवनि 1033 / 6. विष्णुपुराण 2/6/40 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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