________________ अनुवाद-जी-६७ 459 1880. ग्रीष्मकाल में लघुकतर के मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा मध्यम-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1881. वर्षाकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में बेला, जघन्य-मध्यम में उपवास तथा जघन्यजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1882. शिशिरकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्य-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1883. ग्रीष्मकाल में यथालघुक के जघन्य-उत्कृष्ट में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1884. वर्षाकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में तेला, उत्कृष्ट-मध्यम में बेला तथा उत्कृष्टजघन्य में उपवास तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1885. शिशिरकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में बेला, उत्कृष्ट-मध्यम में उपवास तथा उत्कृष्टजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1886. ग्रीष्मकाल में लघुस्वक के उत्कृष्ट-उत्कृष्ट में उपवास, उत्कृष्ट-मध्यम में आयम्बिल तथा उत्कृष्ट-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। . 1887. वर्षाकाल में लघुस्वतर पक्ष के मध्यम-उत्कृष्ट में बेला, मध्यम-मध्यम में उपवास तथा मध्यमजघन्य में आयम्बिल तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1888. शिशिरकाल में लघुस्वतर पक्ष के मध्यम-उत्कृष्ट में उपवास, मध्यम-मध्यम में आयम्बिल तथा मध्यम-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1889. ग्रीष्मकाल में लघुस्वतर के मध्यम-उत्कृष्ट में आयम्बिल, मध्यम-मध्यम में एकासन तथा मध्यम-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1890. वर्षाकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में उपवास, जघन्य-मध्यम में आयम्बिल तथा जघन्य-जघन्य में एकासन तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1891. शिशिरकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में आयम्बिल, जघन्य-मध्यम में एकासन तथा जघन्य-जघन्य में पुरिमार्ध तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1892. ग्रीष्मकाल में यथालघुस्व के जघन्य-उत्कृष्ट में एकासन, जघन्य-मध्यम में पुरिमार्ध तथा जघन्य-जघन्य में निर्विगय तप का प्रायश्चित्त देना चाहिए। 1893. इन स्थानों से नियमतः इन प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है, इन सबका वहन करना चाहिए। असमर्थ साधु का प्रायश्चित्त क्रमशः एक-एक स्थान से हीन होता जाता है। ............ 1894. असहु-असमर्थ साधु को एक-एक पद कम करते हुए स्वस्थान में प्रायश्चित्त देना चाहिए, परस्थान में भी इसी प्रकार प्रायश्चित्त देना चाहिए।