________________ जीतकल्प सभाष्य 833. अस्सद्दहणा' देवस्स आगमो कुणति दो समणरूवे। अतिसारगहितमेगो, अडवीय ठितो गतो बितिओ॥ 834. बेति य गिलाणो पडितो, वेयावच्चं तु सद्दहे जो उ। सो खिप्परे उद्धेतू, सुतं च तं नंदिसेणेणं // 835. छट्ठोववासपारणगमाणितो कवल घेत्तुकामेणं। तं सुत मोत्तुं रभसुट्टितो या भण केण कज्जं? ति // 836. पाणगदव्वं च तहिं, जं णत्थी तेण बेति कज्जं ति। णिग्गत आहिंडते', अणेसणं कुणति ण य पेल्ले // इत एक्कवार बितियं, च हिंडितो 'लद्ध ततियवाराए'।' अणुकंपा तूरंतो, गतो य तो तस्सगासं तु॥ 838. खर-फरुस-णिकैरेहिं, अक्कोसति सो गिलाणगो रुट्ठो। दे मंदभग्ग! घुक्किय, तूससि तं नाममेत्तेणं // 839. साहुवयारि त्ति तुमं, णामड्ड अहं तु उद्दिसिउ आओ। एयाएँ अवत्थाए, तं अच्छसि भत्तलोहिल्लो॥ 840. अमयमिव मण्णमाणो, तं फरुसगिरं तु सो ससंभंतो। चलणगतो खामेती, धुवति य तं समललित्तं तु // 841. उटेह वयामो त्ती, तह काहामो जहा उ अचिरेणं। होहिह निरुया तुब्भे, बेती ण तरामि गंतुं जे॥ 842. आरुभहा पट्ठीए, आरूढो ताहें तो पयारं तु। परमासुइ दुग्गंधं, मुंचति सो तस्स पट्ठीए॥ 843. फरुसं बेति दुमुण्डिय! , वेगविघातो कतो त्ति दुक्खवितो। इय बहुविहमक्कोसति, पदे पदे सो वि भगवं तु॥ 844. ण गणेती फरुसगिरं, न वि य हु दुव्विसहमसुइगंधं च। चंदणमिव मण्णंतो, मिच्छामी दुक्कडं भणति // 1. दहाण (ला, मु)। 2. सिग्धं (ला, मु)। 3. यं (ब)। 4. 'गउच्चं (ता, पा, ब, ला)। 5. डंतो (ला)। 6. तइय लद्धवा (ता)। 7. “य विव (ला)। 8. कत्तो (पा), करो (ब)।